Saturday 31 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 17-18

Sai Satcharitra Hindi chap 18 19

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 18/19 - श्री. हेमाडपंत पर बाबा की कृपा कैसे हुई । श्री. साठे और श्रीमती देशमुख की कथा, आनन्द प्राप्ति के लिये उत्तम विचारों को प्रोत्साहन, उपदेश में नवीमता, निंदा सम्बंधी उपदेश और परिश्रम के लिए मजदूरी ।

ब्रहमज्ञान हेतु लालायित एक धनी व्यक्ति के साथ बाबा ने किस प्रकारा व्यवहारा किया, इसका वर्णन हेमाडपंत ने गत दो अध्यायों में किया है । अब हेमाडपंत पर किस प्रकार बाबा ने अनुग्रह कर, उत्तम विचारों को प्रोत्साहन देकर उन्हें सफलीभूत किया तथा आत्मोन्नति व परिश्रम के फ्रतिफल के सम्बन्ध में किस प्रकार उपदेश किये, इनका इन दो अध्यायों में वर्णन किया जायेगा ।


पूर्व विषय

यह विदित ही है कि सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है । उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है । इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि जो शिक्षा या उपदेश सदगुरु द्घारा प्राप्त हो, उसे अन्य लोगों में प्रसारित न करना चाहिये । उनकी ऐसी भी धारणा है कि उसे प्रकट कर देने से उसका महत्व घट जाता है । यथार्थ में यह दरृष्टिकोण संकुचित है । सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है । प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें । यह नियम जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में प्राप्त उपदेशों के लिए है । उदाहरणार्थ बुधकौशिक ऋषि ने स्वप्न में प्राप्त प्रसिदृ रामरक्षा स्तोत्र साधारण जनता के हितार्थ प्रगट कर दिया था ।

जिस प्रकार एक दयालु माता, बालक के उपचारार्थ कड़वी औषधि का बलपूर्वक प्रयोग करती है, उसी प्रकार श्री साईबाबा भी अपने भक्तों के कल्याणार्थ ही उपदेश दिया करते थे । वे अपनी पद्घति गुपत न रखकर पूर्ण स्पष्टता को ही अधिक महत्व देते थे । इसी कारण जिन भक्तों ने उनके उपदेशों का पूर्णताः पालन किया, वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हुए । श्री साईबाबा जैसे सदगुरु ही ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर आत्मा की दिव्यता का अनुभव करा देने में समर्थ है । विषयवासनाओं से आसक्ति नष्ट कर वे भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, जिसके फलस्वरुप ही ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होकर, ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहती है । यह सब केवल उसी समय सम्भव है, जब हमें सदगुरु का सानिध्य प्राप्त हो तथा सेवा के पश्चात् हम उनके प्रेम को प्राप्त कर सकें । तभी भगतवान भी, जो भक्तकामकल्पतरु है, हमारी सहायतार्थ आ जाते है । वे हमें कष्टों और दुःखों से मुक्त कर सुखी बना देते है । यह सब प्रगति केवल सदगुरु की कृपा से ही सम्भव है, जो कि स्वयँ ईश्वर के प्रतीक है । इसीलिये हमें सदगुरु की खोज में सदैव रहना चाहिये । अब हम मुख्य विषय की ओर आते है ।


श्री साठे

एक महानुभाव का नाम श्री. साठे था । क्रापर्ड के शासनकाल में कई वर्ष पूर्व, उन्हें कुछ ख्यति प्राप्त हो चुकी थी । इस शासन का बम्बई के गवर्नर लार्ड रे ने दमन कर दिया था । श्री. साठे को व्यापार में अधिक हानि हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण उन्हें बड़ा धक्का लगा । वे अत्यन्त दुःखित और निराश हो गये और अशान्त होने के कारण वे घर छोड़कर किसी एकान्त स्थान में वास करने का विचार करने लगे । बहुधा मनुष्यों को ईश्वर की स्मृति आपतत्तिकाल तथा दुर्दिनों में ही आती है और उनका विश्वास भी ईश्वर की ओर ऐसे ही समय में बढ़ जाता है । तभी वे कष्टों के निवारणार्थ उनसे प्रार्थना करने लगते है । यदि उनके पापकर्म शेष न रहे हो तो भगवान भी उनकी भेंट किसी संत से करा देते है, जो उनके कल्याँणार्थ ही उचित मार्ग का निर्देश कर देते है । ऐसा ही श्री. साठे के साथ भी हुआ । उनके एक मित्र ने उन्हें शिरडी जाने की सलाह दी, जहाँ मन की शांति प्राप्त करने और इच्छा पूर्ति के निमित्त, देश के कोने कोने से लोगों के झुंड के झुंड आते जा रहे है । उन्हें यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ और सन् 1917 में वे शिरडी गये । बाबा के सनातन, पूर्ण-ब्रहृ, स्वयं दीप्तिमान, निर्मल शान्त एवं स्थिर हो गया । उन्होंने सोचा कि गत जन्मों के संचित शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही आज मैं श्री साईबाबा के पवित्र चरणों तक परहुँचने में समर्थे हो सका हूँ । श्री. साठे दृढ़ संकल्प के व्यक्ति थे । इसलिये उन्होंने शीघ्र ही गुरुचरित्र का पारायण प्रारम्भ कर दिया । जब एक सप्ताह में ही चरित्र की प्रथम आवृत्ति समाप्त हो गई, तब बाबा ने उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न दिया, जो इस प्रकार है –

बाबा अपने हाथ में चरित्र लिये हुए है और श्री. साठे को कोई विषय समझा रहे है तथा श्री. साठे सम्मुख बैठे ध्यानपूर्वक श्रवण कर रहे है । जब उनकी निद्रा भंग हुई तो स्वप्न को स्मरण कर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने विचार किया कि यह बाबा की अत्यंत कृपा हे, जो इस प्रकार अचेतनावस्था में पड़े हुओं को जागृत कर उन्हें गुरुचरित्र का अमृतपान करने का अवसर प्रदान करते है । उन्होंने यह स्वप्न श्री. काकासाहेब दीक्षित को सुनाया और श्री साईबाबा के पास प्रार्थना करने को कहा कि इसका यथार्थ अर्थ क्या है और क्या एक सप्ताह का पारायण ही मेरे लिये पर्याप्त है अथवा उसे पुनः प्रारम्भ करुँ । श्री. काकासाहेब दीक्षित ने उचित अवसर पाकर बाबा से पूछा कि हे देव । उस दृष्टांत से आपने श्री. साठे को क्या उपदेश दिया है । क्या वे पारायण सप्ताह स्थगित कर दे । वे एक सरलहृदय भक्त है । इसलिए उनकी मनोकामना आप पूर्ण करें और हे देव । कृपाकर उन्हें एक स्वप्न का यथार्थ अर्थ भी समझा दें । तब बाबा बोले कि उन्हें गुरु चरित्र का एक सप्ताह और पारायण करना उचित है । यदि वे ध्यानपूर्वक पाठ करेंगे तो उनका चित्त शुदृ हो जायेगा और घीघ्र ही कल्याँ होगा । ईश्वर भी प्रसन्न होकर उन्हें भव-बन्धन से मुक्त कर देंगे । इस अवसर पर श्री. हेमाडपंत भी वहाँ उपस्थित थे और बाबा के चरणकमलों की सेवा कर रह थे । बाबा के वचन सुनकर उन्हें विचार आया कि साठे को केवल सप्ताह के पारायण से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई, जब कि मैं गत 40 बर्षों से गुरुचरित्र का रारायण कर रहा हूँ, जिसका कोई परिणाम अब तक न निकला । उनका केवल सात दिनों तक शिरडी निवास ही सफल हुआ और मेरा गत सात वर्ष का (1910-17) सहवास क्या व्यर्थ हो गया । चातक पक्षी के समान मैं सदा उसकृपाघन की रहा देखा करता हूँ, जो मेरे ऊपर मस्तिष्क में आया ही था कि बाबा को सब ज्ञात हो गया । ऐसा भक्तों ने सदैव ही अनुभव किया है कि उनके समस्त विचारों को जानकर बाबा तुरन्त कुविचारों का दमन कर उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते थे । हेमाडपंत का ऐसा विचार जानकर बाबा ने तुरन्त ही आज्ञा दी कि शामा के यहाँ जाओ और कुछ समय उनसे वार्तालाप कर, 15 रु. दक्षिणा ले आओ । बाबा को दया आ गई थी । इसी कारण उन्होंने ऐसी आज्ञा दी । उनकी अवज्ञा करने का साहस भी किसे था । श्री. हेमाडपंत शीघ्र शामा के घर पहुँचे । इस समय पर शामा स्नान कर धोती पहन रहे थे । उन्होंने बाहर आकर हेमाडपंत से पूछा कि आप यहाँ कैसे । जान पड़ता है कि आप मसजिद से ही आ रहे है तथा आप ऐसे व्यथित और उदास क्यों है आप अकेले ही क्यों आये है । आइये, बैठिये, और थोड़ा विश्राम तो करिये । जब तक मैं पूजनादि से भी निवृत्त हो जाऊँ, तब तक आप कृपा कर के पान आदि ले । इसके पश्चात् ही हम और आप सुखपूर्वक वार्तालाप करें । ऐसा कहकर वे भीतक चले गए । दालान में बैठे-बैठे हेमाडपंत की दरृष्टि अचानक खिड़की पर रखी नाथ भागवत पर पड़ी । नाथ भागवत श्री एकनाथ द्घारा रचित महाभारत के 11 वें स्कन्ध पर मराठी भाषा में की हुई एक टीका है । श्री साईबाबा की आज्ञानुसार श्री. बापूसाहेब जोग और श्र. काकासाहेब दीक्षित शिरडी में नित्य भगवदगीता का मराठी टीकासहित, जिसका नाम भावार्थए दीपिका या ज्ञानेश्वरी है (कृष्ण और भक्त अर्जुन संवाद), नाथ भागवत (श्रीकृष्ण उद्घव संवाद) और एकनाथ का महान् ग्रन्थ भावा्र्थ रामायण का पठन किया करते थे । जब भक्तगण बाबा से कोई प्रश्न पूछने आते तो वे कभी आंशिक उत्तर देते और कभी उनको उपयुक्त भागवत तथा प्रमुख ग्रंथों का श्रवण करने को कहते थे, जिन्हें सुनने पर भक्तों को अपने प्रश्नों के पूर्णतया संतोषप्रद उत्तर प्राप्त हो जाते थे । श्री. हेमाडपंत भी नित्य प्रति नाथ भागवत के कुछ अंशों का पाठ किया करते थे ।

आज प्रातः मसजिद को जाते समय कुछ भक्तों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना नित्य नियमानुसार पाठ अधूरा ही छोड़ दिया था । उन्होंने जैसे ही वह ग्रन्थ उठाकर खोला तो अपने अपूर्ण भाग का पृष्ठ सामने देखकर उनको आश्चर्य हुआ । उन्होंने सोचा कि बाबा ने इसी कारण ही मुझे यहाँ भेजा है, ताकि मैं अपना शेष पाठ पूरा कर लूँ और उन्होंने शेष अंश का पाठ आरम्भ कर दिया । पाठ पूर्ण होते ही शामा भी बाहर आये और उन दोनों में वार्तालाप होने लगा । हेमाडपंत ने कहा कि मैं बाबा का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूँ । उन्होंने मुझे आपसे 15 रु. दक्षिणा लाने तथा थोड़ी देर वार्तालाप कर आपको अपने साथ लेकर मसजिद वापस आने की आज्ञा दी है । शामा आश्चर्य से बोले मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है । इसलिये आप रुपयों के बदले दक्षिणा मे मेरे 15 नमस्कार ही ले आओ । तब हेमाडपंत ने कहा कि ठीक है, मुझे आपके 15 नमस्कार ही स्वीकार है । आइये, अब हम कुछ वार्तालाप करें और कृपा कर बाबा की कुछ लीलाएँ आप मुझे सुनाय, जिससे पाप नष्ट हो । शामा बोले, तो कुछ देर बैठो । इस ईश्वर (बाबा) की लीला अदभुत है । कहाँ मैं एक अशिक्षित देहाती और कहाँ आप एक विद्घान्, यहाँ आने के पश्चात् तो आप बाबा की अनेक लीलाएँ स्वयं देख ही चुके है, जिनका अब मैं आपके समक्ष कैसे वर्णन कर सकता हूँ । अच्छा, यह पान-सुपारी तो खाओ, तब तक मैं कपड़े पहिन लूँ ।

थोडी देर में शामा बाहर आये और फिर उन दोनों में इस प्रकार वार्तालाप होने गला ः-

शामा बोले – इस परमेश्वर (बाबा) की लीलायें आगाध है, जिसका कोई पार नहीं । वे तो लीलाओं से अलिप्त रहकर सदैव विनोद किया करते है । इसे हम अज्ञानी जीव क्या समझ सकें । बाबा स्वयं ही क्यों नही कहते । आप सरीखे विद्घान को मुझ जैसे मूर्ख के पास क्यों भेजा हैं । उनकी कार्यप्रणाली ही कल्पना के परे है । मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे लौकिक नहीं है । इस भूमिका के साथ ही साथ शामा ने कहा कि अब मुझे एक कथा की स्मृति हो आई है, जिसे मैं व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ । जैसी भक्त की निष्ठा और भाव होता हे, बाबा भी उसी प्रकार उनको सहायता करते है । कभी कभी तो बाबा भक्त की कठिन परीक्षा लेकर ही उसे उपदेश दिया करते हैं । उपदेश शब्द सुनकर साठे के गुरुचरित्र-पारायण की घटना का तत्काल ही स्मरण करके हेमाडपंत को रोमांच हो आया । उन्होंने सोचा, कदाचित् बाबा ने मेरे चित्त की चंचलता नष्ट करने के लिये ही मुझे यहाँ भेजा है । फिर भी वे अपने विचार प्रकट न कर, शामा की कथा को ध्यानपूर्वक सुनने लगे । उन सब कथाओं का सार केवल यही था कि अपने भक्तों के प्रति बाबा के मन में कितनी दया और स्नेह है । इन कथाओं को श्रवण कर हेमाडपंत को आंतरिक उल्लास का अनुभव होने लगा । तब शामा ने नीचे लिखी कथा कही –


श्री मती राधाबाई देशमुख

एक समय एक वृद्घा, श्री मती राधाबाई, जो खाशाबा देशमुख की माँ थी, बाबा की कीर्ति सुनकर संगमनेर के लोगों के साथ शिरडी आई । बाबा के श्री दर्शन कर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई । श्री साई चरणों में उनकी अटल श्रद्घा थी । इसलिये उन्होंने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, बाबा को अपना गुरु बना, उनसे उपदेश ग्रहण किया जाय ।

आमरण अनशन का दृढ़ निश्चय कर अपने विश्राम गृह में आकर उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । मैं इस वृद्घा की अग्निपरीक्षा से बिल्कुल भयभीत हो गया और बाबा से प्रार्थना करने लगा कि देव । आपने अब यह क्या करना आरम्भ कर दिया है । ऐसे कितने लोगों को आप यहाँ आकर्षित किया करते है । आप उस वृद्घ महिला से पूर्ण परिचित ही है, जो हठपूर्वक आप पर अवलम्बित है । यदि आपने कृपादृष्टि कर उसे उपदेश न दिया और यदि दुर्भाग्यवश उसे कुछ हो गया तो लोग व्यर्थ ही आपको दोषी ठहरायेंगे और कहेंगे कि बाबा से उपदेश प्राप्त न होने की वजह से ही उसकी मृत्यु हो गई है । इसलिये अब दया कर उसे आशीष और उपदेश दीजिये । वृद्घा का ऐसा दृढ़ निश्चय देख कर बाबा ने उसे अपने पास बुलाया और मधुर उपदेश देकर उसकी मनोवृत्ति परिवर्तित कर कहा कि ह माता । क्यों व्यर्थ ही तुम यातना सहकर मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो । तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा । तुम मुझ पर दया करो और जो कुछ मैं कहूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो । मैं अपनी स्वयं की कथा तुमसे कहता हूँ और यदि तुम उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करोगी तो तुम्हें अवश्य परम शान्ति प्राप्त होगी । मेरे एक गुरु, जो बड़े सिदृ पुरुष थे, मुझ पर बड़े दयालु थे । दीर्घ काल तक मैं उनकी सेवा करता रहा, फिर भी उन्होंने मेरे कानों में कोई मंत्र न फूँका । मैं उनसे कभी अलगाना भी नहीं चाहता था । मेरी प्रबल उत्कंठा थी कि उनकी सेवा कर जिस प्रकार भी सम्भव हो, मंत्र प्राप्त करुँ । परन्तु उनकी रीति तो न्यारी ही थी । उन्होंने पहले मेरा मुंडन कर मुझसे दो पैसे दक्षिणा में माँगे, जो मैंने तुरन्त ही दे दिये । यदि तुम प्रश्न करो कि मेरे गुरु जब पूर्णकाम थे तो उन्हें पैसे माँगना क्या शोभनीय था । और फिर उन्हें विरक्त भी कैसे कहा जा सकता था । इसका उत्तर केवल यह है कि वे कांचन को ठुकराया करते थे, क्योंकि उन्हें उसकी स्वप्न में भी आवश्यकता न थी । उन दो पैसों का अर्थ था –

दृढ़ निष्ठा और
धैर्य ।

जब मैंने ये दोनों वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । मैंने बारह वर्ष उनके श्री चरणों की सेवा में ही व्यतीत किये । उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया । अतः मुझे भोजन और वस्त्रों का कोई अभाव न था । वे प्रेम की मूर्ति थे अथवा यों कहो कि वे प्रेम के साक्षात् अवतार थे । मैं उनका वर्णन ही कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि उनका तो मुझ पर अधिक स्नेह था और उनके समान गुरु कोई बिरला ही मिलेगा । जब मैं उनकी ओर निहारता तो मुझे प्रतीत होता कि वे गम्भीर मुद्रा में ध्यानमग्न है और तब हम दोनों आनंददित हो जाते थे । आठों प्रहर मैं एक टक उनके ही श्रीमुख की ओर निहारा करता था । मैं भूख और प्यास की सुध-बुध खो बैठा । उनके दर्शनों के बिना मैं अशान्त हो उठता था । गुरु सेवा की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे लिये कोई और चिन्तनीय विषय या पदार्थ न था । मुझे तो सदैव उन्हीं का ध्यान रहता था । अतः मेरा मन उनके चरण-कमलों में मग्न हो गया । यह हुई एक पैसे की दक्षिणा । धैर्य है दूसरा पैसा । मैं धैर्यपूर्वक बहुत काल तक प्रतीक्षा कर गुरुसेवा करता रहा । यही धैर्य तुम्हें भी भवसागर से पार उतार देगा । धैर्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व है । धैर्य धारण करने से समस्त पाप और मोह नष्ट होकर उनके हर प्रकार के संकट दूर होते तथा भय जाता रहता है । इसी प्रकार तुम्हें भी अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । धैर्य तो गुणों की खान व उत्तम विचारों की जननी है । निष्ठा और धैर्य दो जुड़रवाँ बहिनों के समान ही है, जिनमें परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है ।

मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे । उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे । यघपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई । वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे । जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार । सो हे माँ । मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ । केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है ।

इस प्रकार समझाने से वृदृ महिला को सान्तवना मिली और उसने बाबा को नमन कर अपना उपवास त्याग दिया । यह कथा ध्यानपूर्वक एकाग्रता से श्रवण कर तथा उसके उपयुक्त अर्थ पर विचार कर हेमाडपंत को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका कंठ रुँध गया और वे मुख से एक शब्द भी न बोल सके । उनकी ऐसी स्थति देख शामा ने पूछा कि आप ऐसे स्तब्ध क्यों हो गये । बात क्या है । बाबा की तो इस प्रकार की लीलायें अगणित है, जिनका वर्णन मैं किस मुख से करुँ ।

ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का घोतक था । तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले । बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में । सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे । तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये । उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्घारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये है । बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है । तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था । तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे । बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे । इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये । हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृदृ महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है । तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है । अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ । कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया । वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है । उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है । अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है । तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्घति भी अद्घितीय है । यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिदृ होगी । आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी । तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो । यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो । इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रहृ के साथ अभिन्न हो जायेगा । कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर । न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है । छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है । उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है । ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है । बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उचच स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली । प्रिय पाठको । कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है ।

आरती समाप्त होने परप्रसाद वितरण हुआ । बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया । यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरहसे सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे । हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो । तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा । प्यारे पाठको । हेमाडपंत को उस समया मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ । आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये ।

19वे अध्याय के अन्त में हेमाडपंत ने कुछ और भी विषयों का वर्णन किया है, जो यहाँ दिये जाते है ।


अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश

नीचे दिये हुए अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा । जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो । तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दरृरश्य को शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्घैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्घैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं । अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-प्रददर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलनये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये । जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं ।


उत्तम विचारों को प्रोत्साहन

यह ध्यान देने योग्य बात है कि श्री साईबाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहन दिया करते थे । इसलिये यदि हम प्रेम और भक्तिपू्रवक अनन्य भाव से उनकी शरण जायें तो हमें अनुभव हो जायेगा कि वे अनेक अवसरों पर हमें किस प्रकार सहायता पहुँचाते है । किसी सन्त का कथन है कि यदि प्रातःकाल तुम्हारे हृदय में कोई उत्तम विचार उत्पन्न हो और यदि तुम उसकी पुष्टि दिनभर करो तो वह तुम्हारा विवेक अत्यन्त विकसित और चित्त प्रसन्न कर देगा । हेमाडपंत भी इसका अनुभव करना चाहते थे । इसलिये इस पवित्र शिरडी भूमि पर अगले शुभ गुरुवार के समूचे दिन नामस्मरण और कीर्तन में ही व्यतीत करुँ, ऐसा विचार कर वे सो रहे । दूसरे दिन प्रातःकाल उठने पर उन्हं सहज ही राम-नाम का स्मरण हो आया, जिससे वे प्रसन्न हुए और नित्य कर्म समाप्त कर कुछ पुष्प लेकर बाबा के दर्शन करने को गये । जब वे दीक्षित का वाड़ा पार कर बूटी-वाड़े के समीप से जा रहे थे तो उन्हें एक मधुर भजन की ध्वनि, जो मसजिद की ओर से आ रही थी, सुनाई पडी । यह एकनाथ का रोचक भजन औरंगाबादकर मधुर लयपूर्वक बाबा के समक्ष गा रहे थे ।

गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई । राम बिना कुछ मानत नाही ।। धु. ।।

अन्दर रामा बाहर रामा । सपने में देखत सीतारामा ।। 1 ।। गुरु. ।।

जागत रामा सोवत रामा । जहाँ देखे वहीं पूरन कामा ।। 2 ।। गुरु. ।।

एका जनार्दनी अनुभव नीका । जहाँ देखे वहाँ रामसरीखा ।। 3 ।। गुरु. ।।

भजन अनेकों है, परन्तु विशेषकर यह भजन ही क्यों औरंगाबादकर ने चुना । क्या यह बाबा द्घारा ही संयोजित विचित्र अनुरुपता नहीं है । और क्या यह हेमाडपंत के गत दिन अखंड रामनाम स्मरण के संकल्प को प्रोत्साहन नहीं है । सभी संतों का इस सम्बन्ध में एक ही मत है और सभी रामनाम के जप को प्रभावकारी तथा भक्तों की इच्छापूर्ति और सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिये इसे एक अमोघ इलाज बतलाते है।


निन्दा सम्बन्धी उपदेश

उपदेश देने के लिये किसी विशेष समय या स्थान की प्रतीक्षा न कर बाबा यथायोग्य समय पर ही स्वतन्त्रतापूर्वक उपदेश दिया करते थे । एक बार एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में दूसरे लोगों के सम्मुख किसी को अपशब्द कहे । गुणों की उपेक्षा कर उसने अपने भाई के दोषारोपण में इतने बुरे से कटु वाक्यों का प्रयोग किया कि सुनने वालों को भी उसके प्रति घृणा होने लगी । बहुधा देखने में आता है कि लोग व्यर्थ ही दूसरों की निंदा कर झगड़ा और बुराइयाँ उत्पन्न करते है । संत तो परदोषों को दूसरी ही दृष्टि से देखा करते है । उनका कथन है कि शुद्घि के लिये अनेक विधियों में मिट्टी, जल और साबुन पयार्प्त है, परन्तु निंदा करने वालों की युक्ति भिन्न ही होती है । वे दूसरों के दोषों को केवल अपनी जिहृा से ही दूर करते है और इस प्रकार वे दूसरों की निंदा कर उनका उपकार ही किया करते है, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है । निंदक को उचित मार्ग पर लाने के लिये साईबाबा की पदृति सर्वथा ही भिन्न थी । वे तो सर्वज्ञ थे ही, इसलिये उस निंदक के कार्य को वे समझ गये । मध्याहृकाल में जब लेण्डी के समीप उससे भेंट हुई, तब उन्होंने विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर उँगली उठाकर उससे कहा कि देखो, वह कितने प्रेमपूर्वक विष्ठा खा रहा है । तुम भी जी भर कर अपने भाइयों को सदा अपशब्द कहा करते हो और यह तुम्हारा आचरण भी ठीक उसी के सदृश ही है । अनेक शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही तुम्हें मानव-तन प्राप्त हुआ और इसलिये यदि तुमने इसी प्रकार आचरण किया तो शिरडी तुम्हारी सहायता ही क्या कर सकेगी । कहने का तात्पर्य केवल यह है कि भक्त ने उपदेश ग्रहण कर लिया और वह वहाँ से चला गया । इस प्रकार प्रसंगानुसार ही वे उपदेश दिया करते थे । यदि उन पर ध्यान देकर नित्य उनका पालन किया जाय तो आध्यात्मिक ध्येय अधिक दूर न होगा । एक कहावत प्रचनित है कि – यदि मेरा श्रीहरि होगा तो वह मुझे चारपाई पर बैठे-बैठे ही भोजन पहुँचायेगा । यह कहावत भोजन और वस्त्र के विषय में सत्य प्रतीत हो सकती है, परन्तु यदि कोई इस पर विश्वास कर आलस्यवशबैठा रहे तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ भी प्रगति न कर उलटे पतन के घोर अंधकार में मग्न हो जायेगा । इसलिये आत्मानुभूति प्राप्ति के लिये प्र्तेक को अनवरत परिश्रम करना चाहिये और जितना प्रयत्न वह करेगा, उतना ही उसके लिए लाभप्रद भी हो । बाबा ने कहा कि मैं तो सर्वव्यापी हूँ और विश्व के समस्त भूतों तथा चराचर में व्याप्त रहकर भी अनंत हूँ । केवल उनके भ्रम-निवारणार्थ ही जिनकी दृष्टि में वे साढ़े तीन हाथ के मानव थे, स्वयं सगुण रुप धारण कर अवतीर्ण हुए । इसलिये जो भक्त अनन्य भाव से उनकी शरण आये और जिन्होंने दिन-रात ही उनका ध्यान किया, उन्हें उनसे अभिन्नता प्राप्त हुई, जिस प्रकार कि माधुर्य और मिश्री, लहर और सममुद्र तथा नेत्र और कांति में अभिन्नता हुआ करती है । जो आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहे, वे शांत और स्थिर होकर अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें । दुःखदायी कटु शब्दों के प्रयोग से किसी को दुःखित न कर सदैव उत्तम कार्यों में संलग्न रहकर अपना कर्तव्य करते हुए अनन्य भाव से भयरहित हो उनकी शरण में जाना चाहिये । जो पूर्ण विश्वास से उनकी लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करेगा तथा अन्य वस्तुओं की चिंता त्याग देगा, उसे निस्संदेह ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होगी । उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा । जो यह जानने को उत्सुक थे कि मैं कौन हूँ । बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया । किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा । अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा । उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी । उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये । एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मघपान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा । किसी-किसी को मंत्र जैसे गुरुब्रर्हा अदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा । उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है । साधारण सांसारिक व्यवहारों में उन्होंने अपने आचरण द्घारा ऐसे अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें से एक यहाँ नीचे दिया जाता है ।


परिश्रम के लिये मजदूरी

एक दिन बाबा ने राधाकृष्णमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा । तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया । वे उनके घर पर चढ़ गये और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दूसरे छोर से नीचे उतर आये । इसका अर्थ किसी की समझ में न आया । राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी । इसलिये हो सकता है कि उनका ज्वर दूर करने के लिये ही उन्होंने ऐसा कार्य किया हो । नीचे उतरने के पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रु. पारिश्रमिक स्वरुप दिये । तब एक ने साहस कर उनसे पूछा कि इतने अधिक पैसे देना क्या अर्थ रखता है । उन्होंने कहा कि किसी से बिना परिश्रम का मूल्य चुकाये कार्य न कराना चाहिये और कार्य करनेवाले को उसके श्रम का शीघ्र निपटारा कर उदार हृदय से मजदूरी देनी चाहिये । यदि बाबा के इस नियम का पालन किया जाये अर्थात् मजदूरी का भुगतान शीघ्र और मजदूरों के लिये सन्तोषप्रद हो तो वे अधिक उत्तम कार्य करेंगे, लगन से कार्य करेंगें । फिर कार्य छोड़ने एवं हड़तालों की कोई समस्या ही नहीं रह जायेगी और न ही मालिक और मजदूरों में वैमनस्य पैदा होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Sai Satcharitra Hindi Chp 17-18

Sai Satcharitra Hindi chap 18 19

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 18/19 - श्री. हेमाडपंत पर बाबा की कृपा कैसे हुई । श्री. साठे और श्रीमती देशमुख की कथा, आनन्द प्राप्ति के लिये उत्तम विचारों को प्रोत्साहन, उपदेश में नवीमता, निंदा सम्बंधी उपदेश और परिश्रम के लिए मजदूरी ।

ब्रहमज्ञान हेतु लालायित एक धनी व्यक्ति के साथ बाबा ने किस प्रकारा व्यवहारा किया, इसका वर्णन हेमाडपंत ने गत दो अध्यायों में किया है । अब हेमाडपंत पर किस प्रकार बाबा ने अनुग्रह कर, उत्तम विचारों को प्रोत्साहन देकर उन्हें सफलीभूत किया तथा आत्मोन्नति व परिश्रम के फ्रतिफल के सम्बन्ध में किस प्रकार उपदेश किये, इनका इन दो अध्यायों में वर्णन किया जायेगा ।


पूर्व विषय

यह विदित ही है कि सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है । उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है । इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि जो शिक्षा या उपदेश सदगुरु द्घारा प्राप्त हो, उसे अन्य लोगों में प्रसारित न करना चाहिये । उनकी ऐसी भी धारणा है कि उसे प्रकट कर देने से उसका महत्व घट जाता है । यथार्थ में यह दरृष्टिकोण संकुचित है । सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है । प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें । यह नियम जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में प्राप्त उपदेशों के लिए है । उदाहरणार्थ बुधकौशिक ऋषि ने स्वप्न में प्राप्त प्रसिदृ रामरक्षा स्तोत्र साधारण जनता के हितार्थ प्रगट कर दिया था ।

जिस प्रकार एक दयालु माता, बालक के उपचारार्थ कड़वी औषधि का बलपूर्वक प्रयोग करती है, उसी प्रकार श्री साईबाबा भी अपने भक्तों के कल्याणार्थ ही उपदेश दिया करते थे । वे अपनी पद्घति गुपत न रखकर पूर्ण स्पष्टता को ही अधिक महत्व देते थे । इसी कारण जिन भक्तों ने उनके उपदेशों का पूर्णताः पालन किया, वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हुए । श्री साईबाबा जैसे सदगुरु ही ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर आत्मा की दिव्यता का अनुभव करा देने में समर्थ है । विषयवासनाओं से आसक्ति नष्ट कर वे भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, जिसके फलस्वरुप ही ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होकर, ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहती है । यह सब केवल उसी समय सम्भव है, जब हमें सदगुरु का सानिध्य प्राप्त हो तथा सेवा के पश्चात् हम उनके प्रेम को प्राप्त कर सकें । तभी भगतवान भी, जो भक्तकामकल्पतरु है, हमारी सहायतार्थ आ जाते है । वे हमें कष्टों और दुःखों से मुक्त कर सुखी बना देते है । यह सब प्रगति केवल सदगुरु की कृपा से ही सम्भव है, जो कि स्वयँ ईश्वर के प्रतीक है । इसीलिये हमें सदगुरु की खोज में सदैव रहना चाहिये । अब हम मुख्य विषय की ओर आते है ।


श्री साठे

एक महानुभाव का नाम श्री. साठे था । क्रापर्ड के शासनकाल में कई वर्ष पूर्व, उन्हें कुछ ख्यति प्राप्त हो चुकी थी । इस शासन का बम्बई के गवर्नर लार्ड रे ने दमन कर दिया था । श्री. साठे को व्यापार में अधिक हानि हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण उन्हें बड़ा धक्का लगा । वे अत्यन्त दुःखित और निराश हो गये और अशान्त होने के कारण वे घर छोड़कर किसी एकान्त स्थान में वास करने का विचार करने लगे । बहुधा मनुष्यों को ईश्वर की स्मृति आपतत्तिकाल तथा दुर्दिनों में ही आती है और उनका विश्वास भी ईश्वर की ओर ऐसे ही समय में बढ़ जाता है । तभी वे कष्टों के निवारणार्थ उनसे प्रार्थना करने लगते है । यदि उनके पापकर्म शेष न रहे हो तो भगवान भी उनकी भेंट किसी संत से करा देते है, जो उनके कल्याँणार्थ ही उचित मार्ग का निर्देश कर देते है । ऐसा ही श्री. साठे के साथ भी हुआ । उनके एक मित्र ने उन्हें शिरडी जाने की सलाह दी, जहाँ मन की शांति प्राप्त करने और इच्छा पूर्ति के निमित्त, देश के कोने कोने से लोगों के झुंड के झुंड आते जा रहे है । उन्हें यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ और सन् 1917 में वे शिरडी गये । बाबा के सनातन, पूर्ण-ब्रहृ, स्वयं दीप्तिमान, निर्मल शान्त एवं स्थिर हो गया । उन्होंने सोचा कि गत जन्मों के संचित शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही आज मैं श्री साईबाबा के पवित्र चरणों तक परहुँचने में समर्थे हो सका हूँ । श्री. साठे दृढ़ संकल्प के व्यक्ति थे । इसलिये उन्होंने शीघ्र ही गुरुचरित्र का पारायण प्रारम्भ कर दिया । जब एक सप्ताह में ही चरित्र की प्रथम आवृत्ति समाप्त हो गई, तब बाबा ने उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न दिया, जो इस प्रकार है –

बाबा अपने हाथ में चरित्र लिये हुए है और श्री. साठे को कोई विषय समझा रहे है तथा श्री. साठे सम्मुख बैठे ध्यानपूर्वक श्रवण कर रहे है । जब उनकी निद्रा भंग हुई तो स्वप्न को स्मरण कर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने विचार किया कि यह बाबा की अत्यंत कृपा हे, जो इस प्रकार अचेतनावस्था में पड़े हुओं को जागृत कर उन्हें गुरुचरित्र का अमृतपान करने का अवसर प्रदान करते है । उन्होंने यह स्वप्न श्री. काकासाहेब दीक्षित को सुनाया और श्री साईबाबा के पास प्रार्थना करने को कहा कि इसका यथार्थ अर्थ क्या है और क्या एक सप्ताह का पारायण ही मेरे लिये पर्याप्त है अथवा उसे पुनः प्रारम्भ करुँ । श्री. काकासाहेब दीक्षित ने उचित अवसर पाकर बाबा से पूछा कि हे देव । उस दृष्टांत से आपने श्री. साठे को क्या उपदेश दिया है । क्या वे पारायण सप्ताह स्थगित कर दे । वे एक सरलहृदय भक्त है । इसलिए उनकी मनोकामना आप पूर्ण करें और हे देव । कृपाकर उन्हें एक स्वप्न का यथार्थ अर्थ भी समझा दें । तब बाबा बोले कि उन्हें गुरु चरित्र का एक सप्ताह और पारायण करना उचित है । यदि वे ध्यानपूर्वक पाठ करेंगे तो उनका चित्त शुदृ हो जायेगा और घीघ्र ही कल्याँ होगा । ईश्वर भी प्रसन्न होकर उन्हें भव-बन्धन से मुक्त कर देंगे । इस अवसर पर श्री. हेमाडपंत भी वहाँ उपस्थित थे और बाबा के चरणकमलों की सेवा कर रह थे । बाबा के वचन सुनकर उन्हें विचार आया कि साठे को केवल सप्ताह के पारायण से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई, जब कि मैं गत 40 बर्षों से गुरुचरित्र का रारायण कर रहा हूँ, जिसका कोई परिणाम अब तक न निकला । उनका केवल सात दिनों तक शिरडी निवास ही सफल हुआ और मेरा गत सात वर्ष का (1910-17) सहवास क्या व्यर्थ हो गया । चातक पक्षी के समान मैं सदा उसकृपाघन की रहा देखा करता हूँ, जो मेरे ऊपर मस्तिष्क में आया ही था कि बाबा को सब ज्ञात हो गया । ऐसा भक्तों ने सदैव ही अनुभव किया है कि उनके समस्त विचारों को जानकर बाबा तुरन्त कुविचारों का दमन कर उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते थे । हेमाडपंत का ऐसा विचार जानकर बाबा ने तुरन्त ही आज्ञा दी कि शामा के यहाँ जाओ और कुछ समय उनसे वार्तालाप कर, 15 रु. दक्षिणा ले आओ । बाबा को दया आ गई थी । इसी कारण उन्होंने ऐसी आज्ञा दी । उनकी अवज्ञा करने का साहस भी किसे था । श्री. हेमाडपंत शीघ्र शामा के घर पहुँचे । इस समय पर शामा स्नान कर धोती पहन रहे थे । उन्होंने बाहर आकर हेमाडपंत से पूछा कि आप यहाँ कैसे । जान पड़ता है कि आप मसजिद से ही आ रहे है तथा आप ऐसे व्यथित और उदास क्यों है आप अकेले ही क्यों आये है । आइये, बैठिये, और थोड़ा विश्राम तो करिये । जब तक मैं पूजनादि से भी निवृत्त हो जाऊँ, तब तक आप कृपा कर के पान आदि ले । इसके पश्चात् ही हम और आप सुखपूर्वक वार्तालाप करें । ऐसा कहकर वे भीतक चले गए । दालान में बैठे-बैठे हेमाडपंत की दरृष्टि अचानक खिड़की पर रखी नाथ भागवत पर पड़ी । नाथ भागवत श्री एकनाथ द्घारा रचित महाभारत के 11 वें स्कन्ध पर मराठी भाषा में की हुई एक टीका है । श्री साईबाबा की आज्ञानुसार श्री. बापूसाहेब जोग और श्र. काकासाहेब दीक्षित शिरडी में नित्य भगवदगीता का मराठी टीकासहित, जिसका नाम भावार्थए दीपिका या ज्ञानेश्वरी है (कृष्ण और भक्त अर्जुन संवाद), नाथ भागवत (श्रीकृष्ण उद्घव संवाद) और एकनाथ का महान् ग्रन्थ भावा्र्थ रामायण का पठन किया करते थे । जब भक्तगण बाबा से कोई प्रश्न पूछने आते तो वे कभी आंशिक उत्तर देते और कभी उनको उपयुक्त भागवत तथा प्रमुख ग्रंथों का श्रवण करने को कहते थे, जिन्हें सुनने पर भक्तों को अपने प्रश्नों के पूर्णतया संतोषप्रद उत्तर प्राप्त हो जाते थे । श्री. हेमाडपंत भी नित्य प्रति नाथ भागवत के कुछ अंशों का पाठ किया करते थे ।

आज प्रातः मसजिद को जाते समय कुछ भक्तों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना नित्य नियमानुसार पाठ अधूरा ही छोड़ दिया था । उन्होंने जैसे ही वह ग्रन्थ उठाकर खोला तो अपने अपूर्ण भाग का पृष्ठ सामने देखकर उनको आश्चर्य हुआ । उन्होंने सोचा कि बाबा ने इसी कारण ही मुझे यहाँ भेजा है, ताकि मैं अपना शेष पाठ पूरा कर लूँ और उन्होंने शेष अंश का पाठ आरम्भ कर दिया । पाठ पूर्ण होते ही शामा भी बाहर आये और उन दोनों में वार्तालाप होने लगा । हेमाडपंत ने कहा कि मैं बाबा का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूँ । उन्होंने मुझे आपसे 15 रु. दक्षिणा लाने तथा थोड़ी देर वार्तालाप कर आपको अपने साथ लेकर मसजिद वापस आने की आज्ञा दी है । शामा आश्चर्य से बोले मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है । इसलिये आप रुपयों के बदले दक्षिणा मे मेरे 15 नमस्कार ही ले आओ । तब हेमाडपंत ने कहा कि ठीक है, मुझे आपके 15 नमस्कार ही स्वीकार है । आइये, अब हम कुछ वार्तालाप करें और कृपा कर बाबा की कुछ लीलाएँ आप मुझे सुनाय, जिससे पाप नष्ट हो । शामा बोले, तो कुछ देर बैठो । इस ईश्वर (बाबा) की लीला अदभुत है । कहाँ मैं एक अशिक्षित देहाती और कहाँ आप एक विद्घान्, यहाँ आने के पश्चात् तो आप बाबा की अनेक लीलाएँ स्वयं देख ही चुके है, जिनका अब मैं आपके समक्ष कैसे वर्णन कर सकता हूँ । अच्छा, यह पान-सुपारी तो खाओ, तब तक मैं कपड़े पहिन लूँ ।

थोडी देर में शामा बाहर आये और फिर उन दोनों में इस प्रकार वार्तालाप होने गला ः-

शामा बोले – इस परमेश्वर (बाबा) की लीलायें आगाध है, जिसका कोई पार नहीं । वे तो लीलाओं से अलिप्त रहकर सदैव विनोद किया करते है । इसे हम अज्ञानी जीव क्या समझ सकें । बाबा स्वयं ही क्यों नही कहते । आप सरीखे विद्घान को मुझ जैसे मूर्ख के पास क्यों भेजा हैं । उनकी कार्यप्रणाली ही कल्पना के परे है । मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे लौकिक नहीं है । इस भूमिका के साथ ही साथ शामा ने कहा कि अब मुझे एक कथा की स्मृति हो आई है, जिसे मैं व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ । जैसी भक्त की निष्ठा और भाव होता हे, बाबा भी उसी प्रकार उनको सहायता करते है । कभी कभी तो बाबा भक्त की कठिन परीक्षा लेकर ही उसे उपदेश दिया करते हैं । उपदेश शब्द सुनकर साठे के गुरुचरित्र-पारायण की घटना का तत्काल ही स्मरण करके हेमाडपंत को रोमांच हो आया । उन्होंने सोचा, कदाचित् बाबा ने मेरे चित्त की चंचलता नष्ट करने के लिये ही मुझे यहाँ भेजा है । फिर भी वे अपने विचार प्रकट न कर, शामा की कथा को ध्यानपूर्वक सुनने लगे । उन सब कथाओं का सार केवल यही था कि अपने भक्तों के प्रति बाबा के मन में कितनी दया और स्नेह है । इन कथाओं को श्रवण कर हेमाडपंत को आंतरिक उल्लास का अनुभव होने लगा । तब शामा ने नीचे लिखी कथा कही –


श्री मती राधाबाई देशमुख

एक समय एक वृद्घा, श्री मती राधाबाई, जो खाशाबा देशमुख की माँ थी, बाबा की कीर्ति सुनकर संगमनेर के लोगों के साथ शिरडी आई । बाबा के श्री दर्शन कर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई । श्री साई चरणों में उनकी अटल श्रद्घा थी । इसलिये उन्होंने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, बाबा को अपना गुरु बना, उनसे उपदेश ग्रहण किया जाय ।

आमरण अनशन का दृढ़ निश्चय कर अपने विश्राम गृह में आकर उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । मैं इस वृद्घा की अग्निपरीक्षा से बिल्कुल भयभीत हो गया और बाबा से प्रार्थना करने लगा कि देव । आपने अब यह क्या करना आरम्भ कर दिया है । ऐसे कितने लोगों को आप यहाँ आकर्षित किया करते है । आप उस वृद्घ महिला से पूर्ण परिचित ही है, जो हठपूर्वक आप पर अवलम्बित है । यदि आपने कृपादृष्टि कर उसे उपदेश न दिया और यदि दुर्भाग्यवश उसे कुछ हो गया तो लोग व्यर्थ ही आपको दोषी ठहरायेंगे और कहेंगे कि बाबा से उपदेश प्राप्त न होने की वजह से ही उसकी मृत्यु हो गई है । इसलिये अब दया कर उसे आशीष और उपदेश दीजिये । वृद्घा का ऐसा दृढ़ निश्चय देख कर बाबा ने उसे अपने पास बुलाया और मधुर उपदेश देकर उसकी मनोवृत्ति परिवर्तित कर कहा कि ह माता । क्यों व्यर्थ ही तुम यातना सहकर मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो । तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा । तुम मुझ पर दया करो और जो कुछ मैं कहूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो । मैं अपनी स्वयं की कथा तुमसे कहता हूँ और यदि तुम उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करोगी तो तुम्हें अवश्य परम शान्ति प्राप्त होगी । मेरे एक गुरु, जो बड़े सिदृ पुरुष थे, मुझ पर बड़े दयालु थे । दीर्घ काल तक मैं उनकी सेवा करता रहा, फिर भी उन्होंने मेरे कानों में कोई मंत्र न फूँका । मैं उनसे कभी अलगाना भी नहीं चाहता था । मेरी प्रबल उत्कंठा थी कि उनकी सेवा कर जिस प्रकार भी सम्भव हो, मंत्र प्राप्त करुँ । परन्तु उनकी रीति तो न्यारी ही थी । उन्होंने पहले मेरा मुंडन कर मुझसे दो पैसे दक्षिणा में माँगे, जो मैंने तुरन्त ही दे दिये । यदि तुम प्रश्न करो कि मेरे गुरु जब पूर्णकाम थे तो उन्हें पैसे माँगना क्या शोभनीय था । और फिर उन्हें विरक्त भी कैसे कहा जा सकता था । इसका उत्तर केवल यह है कि वे कांचन को ठुकराया करते थे, क्योंकि उन्हें उसकी स्वप्न में भी आवश्यकता न थी । उन दो पैसों का अर्थ था –

दृढ़ निष्ठा और
धैर्य ।

जब मैंने ये दोनों वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । मैंने बारह वर्ष उनके श्री चरणों की सेवा में ही व्यतीत किये । उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया । अतः मुझे भोजन और वस्त्रों का कोई अभाव न था । वे प्रेम की मूर्ति थे अथवा यों कहो कि वे प्रेम के साक्षात् अवतार थे । मैं उनका वर्णन ही कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि उनका तो मुझ पर अधिक स्नेह था और उनके समान गुरु कोई बिरला ही मिलेगा । जब मैं उनकी ओर निहारता तो मुझे प्रतीत होता कि वे गम्भीर मुद्रा में ध्यानमग्न है और तब हम दोनों आनंददित हो जाते थे । आठों प्रहर मैं एक टक उनके ही श्रीमुख की ओर निहारा करता था । मैं भूख और प्यास की सुध-बुध खो बैठा । उनके दर्शनों के बिना मैं अशान्त हो उठता था । गुरु सेवा की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे लिये कोई और चिन्तनीय विषय या पदार्थ न था । मुझे तो सदैव उन्हीं का ध्यान रहता था । अतः मेरा मन उनके चरण-कमलों में मग्न हो गया । यह हुई एक पैसे की दक्षिणा । धैर्य है दूसरा पैसा । मैं धैर्यपूर्वक बहुत काल तक प्रतीक्षा कर गुरुसेवा करता रहा । यही धैर्य तुम्हें भी भवसागर से पार उतार देगा । धैर्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व है । धैर्य धारण करने से समस्त पाप और मोह नष्ट होकर उनके हर प्रकार के संकट दूर होते तथा भय जाता रहता है । इसी प्रकार तुम्हें भी अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । धैर्य तो गुणों की खान व उत्तम विचारों की जननी है । निष्ठा और धैर्य दो जुड़रवाँ बहिनों के समान ही है, जिनमें परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है ।

मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे । उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे । यघपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई । वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे । जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार । सो हे माँ । मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ । केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है ।

इस प्रकार समझाने से वृदृ महिला को सान्तवना मिली और उसने बाबा को नमन कर अपना उपवास त्याग दिया । यह कथा ध्यानपूर्वक एकाग्रता से श्रवण कर तथा उसके उपयुक्त अर्थ पर विचार कर हेमाडपंत को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका कंठ रुँध गया और वे मुख से एक शब्द भी न बोल सके । उनकी ऐसी स्थति देख शामा ने पूछा कि आप ऐसे स्तब्ध क्यों हो गये । बात क्या है । बाबा की तो इस प्रकार की लीलायें अगणित है, जिनका वर्णन मैं किस मुख से करुँ ।

ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का घोतक था । तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले । बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में । सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे । तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये । उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्घारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये है । बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है । तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था । तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे । बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे । इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये । हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृदृ महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है । तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है । अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ । कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया । वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है । उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है । अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है । तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्घति भी अद्घितीय है । यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिदृ होगी । आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी । तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो । यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो । इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रहृ के साथ अभिन्न हो जायेगा । कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर । न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है । छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है । उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है । ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है । बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उचच स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली । प्रिय पाठको । कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है ।

आरती समाप्त होने परप्रसाद वितरण हुआ । बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया । यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरहसे सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे । हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो । तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा । प्यारे पाठको । हेमाडपंत को उस समया मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ । आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये ।

19वे अध्याय के अन्त में हेमाडपंत ने कुछ और भी विषयों का वर्णन किया है, जो यहाँ दिये जाते है ।


अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश

नीचे दिये हुए अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा । जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो । तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दरृरश्य को शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्घैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्घैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं । अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-प्रददर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलनये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये । जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं ।


उत्तम विचारों को प्रोत्साहन

यह ध्यान देने योग्य बात है कि श्री साईबाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहन दिया करते थे । इसलिये यदि हम प्रेम और भक्तिपू्रवक अनन्य भाव से उनकी शरण जायें तो हमें अनुभव हो जायेगा कि वे अनेक अवसरों पर हमें किस प्रकार सहायता पहुँचाते है । किसी सन्त का कथन है कि यदि प्रातःकाल तुम्हारे हृदय में कोई उत्तम विचार उत्पन्न हो और यदि तुम उसकी पुष्टि दिनभर करो तो वह तुम्हारा विवेक अत्यन्त विकसित और चित्त प्रसन्न कर देगा । हेमाडपंत भी इसका अनुभव करना चाहते थे । इसलिये इस पवित्र शिरडी भूमि पर अगले शुभ गुरुवार के समूचे दिन नामस्मरण और कीर्तन में ही व्यतीत करुँ, ऐसा विचार कर वे सो रहे । दूसरे दिन प्रातःकाल उठने पर उन्हं सहज ही राम-नाम का स्मरण हो आया, जिससे वे प्रसन्न हुए और नित्य कर्म समाप्त कर कुछ पुष्प लेकर बाबा के दर्शन करने को गये । जब वे दीक्षित का वाड़ा पार कर बूटी-वाड़े के समीप से जा रहे थे तो उन्हें एक मधुर भजन की ध्वनि, जो मसजिद की ओर से आ रही थी, सुनाई पडी । यह एकनाथ का रोचक भजन औरंगाबादकर मधुर लयपूर्वक बाबा के समक्ष गा रहे थे ।

गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई । राम बिना कुछ मानत नाही ।। धु. ।।

अन्दर रामा बाहर रामा । सपने में देखत सीतारामा ।। 1 ।। गुरु. ।।

जागत रामा सोवत रामा । जहाँ देखे वहीं पूरन कामा ।। 2 ।। गुरु. ।।

एका जनार्दनी अनुभव नीका । जहाँ देखे वहाँ रामसरीखा ।। 3 ।। गुरु. ।।

भजन अनेकों है, परन्तु विशेषकर यह भजन ही क्यों औरंगाबादकर ने चुना । क्या यह बाबा द्घारा ही संयोजित विचित्र अनुरुपता नहीं है । और क्या यह हेमाडपंत के गत दिन अखंड रामनाम स्मरण के संकल्प को प्रोत्साहन नहीं है । सभी संतों का इस सम्बन्ध में एक ही मत है और सभी रामनाम के जप को प्रभावकारी तथा भक्तों की इच्छापूर्ति और सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिये इसे एक अमोघ इलाज बतलाते है।


निन्दा सम्बन्धी उपदेश

उपदेश देने के लिये किसी विशेष समय या स्थान की प्रतीक्षा न कर बाबा यथायोग्य समय पर ही स्वतन्त्रतापूर्वक उपदेश दिया करते थे । एक बार एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में दूसरे लोगों के सम्मुख किसी को अपशब्द कहे । गुणों की उपेक्षा कर उसने अपने भाई के दोषारोपण में इतने बुरे से कटु वाक्यों का प्रयोग किया कि सुनने वालों को भी उसके प्रति घृणा होने लगी । बहुधा देखने में आता है कि लोग व्यर्थ ही दूसरों की निंदा कर झगड़ा और बुराइयाँ उत्पन्न करते है । संत तो परदोषों को दूसरी ही दृष्टि से देखा करते है । उनका कथन है कि शुद्घि के लिये अनेक विधियों में मिट्टी, जल और साबुन पयार्प्त है, परन्तु निंदा करने वालों की युक्ति भिन्न ही होती है । वे दूसरों के दोषों को केवल अपनी जिहृा से ही दूर करते है और इस प्रकार वे दूसरों की निंदा कर उनका उपकार ही किया करते है, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है । निंदक को उचित मार्ग पर लाने के लिये साईबाबा की पदृति सर्वथा ही भिन्न थी । वे तो सर्वज्ञ थे ही, इसलिये उस निंदक के कार्य को वे समझ गये । मध्याहृकाल में जब लेण्डी के समीप उससे भेंट हुई, तब उन्होंने विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर उँगली उठाकर उससे कहा कि देखो, वह कितने प्रेमपूर्वक विष्ठा खा रहा है । तुम भी जी भर कर अपने भाइयों को सदा अपशब्द कहा करते हो और यह तुम्हारा आचरण भी ठीक उसी के सदृश ही है । अनेक शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही तुम्हें मानव-तन प्राप्त हुआ और इसलिये यदि तुमने इसी प्रकार आचरण किया तो शिरडी तुम्हारी सहायता ही क्या कर सकेगी । कहने का तात्पर्य केवल यह है कि भक्त ने उपदेश ग्रहण कर लिया और वह वहाँ से चला गया । इस प्रकार प्रसंगानुसार ही वे उपदेश दिया करते थे । यदि उन पर ध्यान देकर नित्य उनका पालन किया जाय तो आध्यात्मिक ध्येय अधिक दूर न होगा । एक कहावत प्रचनित है कि – यदि मेरा श्रीहरि होगा तो वह मुझे चारपाई पर बैठे-बैठे ही भोजन पहुँचायेगा । यह कहावत भोजन और वस्त्र के विषय में सत्य प्रतीत हो सकती है, परन्तु यदि कोई इस पर विश्वास कर आलस्यवशबैठा रहे तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ भी प्रगति न कर उलटे पतन के घोर अंधकार में मग्न हो जायेगा । इसलिये आत्मानुभूति प्राप्ति के लिये प्र्तेक को अनवरत परिश्रम करना चाहिये और जितना प्रयत्न वह करेगा, उतना ही उसके लिए लाभप्रद भी हो । बाबा ने कहा कि मैं तो सर्वव्यापी हूँ और विश्व के समस्त भूतों तथा चराचर में व्याप्त रहकर भी अनंत हूँ । केवल उनके भ्रम-निवारणार्थ ही जिनकी दृष्टि में वे साढ़े तीन हाथ के मानव थे, स्वयं सगुण रुप धारण कर अवतीर्ण हुए । इसलिये जो भक्त अनन्य भाव से उनकी शरण आये और जिन्होंने दिन-रात ही उनका ध्यान किया, उन्हें उनसे अभिन्नता प्राप्त हुई, जिस प्रकार कि माधुर्य और मिश्री, लहर और सममुद्र तथा नेत्र और कांति में अभिन्नता हुआ करती है । जो आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहे, वे शांत और स्थिर होकर अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें । दुःखदायी कटु शब्दों के प्रयोग से किसी को दुःखित न कर सदैव उत्तम कार्यों में संलग्न रहकर अपना कर्तव्य करते हुए अनन्य भाव से भयरहित हो उनकी शरण में जाना चाहिये । जो पूर्ण विश्वास से उनकी लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करेगा तथा अन्य वस्तुओं की चिंता त्याग देगा, उसे निस्संदेह ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होगी । उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा । जो यह जानने को उत्सुक थे कि मैं कौन हूँ । बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया । किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा । अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा । उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी । उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये । एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मघपान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा । किसी-किसी को मंत्र जैसे गुरुब्रर्हा अदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा । उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है । साधारण सांसारिक व्यवहारों में उन्होंने अपने आचरण द्घारा ऐसे अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें से एक यहाँ नीचे दिया जाता है ।


परिश्रम के लिये मजदूरी

एक दिन बाबा ने राधाकृष्णमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा । तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया । वे उनके घर पर चढ़ गये और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दूसरे छोर से नीचे उतर आये । इसका अर्थ किसी की समझ में न आया । राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी । इसलिये हो सकता है कि उनका ज्वर दूर करने के लिये ही उन्होंने ऐसा कार्य किया हो । नीचे उतरने के पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रु. पारिश्रमिक स्वरुप दिये । तब एक ने साहस कर उनसे पूछा कि इतने अधिक पैसे देना क्या अर्थ रखता है । उन्होंने कहा कि किसी से बिना परिश्रम का मूल्य चुकाये कार्य न कराना चाहिये और कार्य करनेवाले को उसके श्रम का शीघ्र निपटारा कर उदार हृदय से मजदूरी देनी चाहिये । यदि बाबा के इस नियम का पालन किया जाये अर्थात् मजदूरी का भुगतान शीघ्र और मजदूरों के लिये सन्तोषप्रद हो तो वे अधिक उत्तम कार्य करेंगे, लगन से कार्य करेंगें । फिर कार्य छोड़ने एवं हड़तालों की कोई समस्या ही नहीं रह जायेगी और न ही मालिक और मजदूरों में वैमनस्य पैदा होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Friday 30 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 16-17

Sai Satcharitra Hindi chap 16

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 16/17 - शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति

इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था, उसका वर्णन हैं ।


पूर्व विषय

गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं । उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी । पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे । और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे ।

यथार्थ में देखा जाय तो सद्गगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है । उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती । जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढय व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया, उसे अब श्रवण करें ।

एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था । उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी । जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है । उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है । तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता ।

अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे । साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ । मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ । यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा ।

बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र । इतने अधीर न होओ । मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा । मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता । इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है । ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो । भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं । मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है । मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा ।

यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये । उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा । लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है । फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा । इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा । इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला ।

हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी । और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया । उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी । वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है । यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था । ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गडडियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते । जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते । वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे । यघपि बाबा द्घारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका । पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं । यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता । परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी । उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा । कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो । बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र । क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया । मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था । संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं-

पाँच प्राण
पाँच इन्द्रयाँ
मन
बुद्घि तथा
अहंकार ।

यह हुआ ब्रहृज्ञान । आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना । श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –


ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ

सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते । उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है ।


1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कणठा)

जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूं और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्ये की प्राप्ति क लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है ।


2. विरक्ति

लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।


3. अन्तमुर्खता

ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है । हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये ।


4. पाप से शुद्घि

जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता ।


5. उचित आचरण

जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं ।


6. सारवस्तु ग्रहण करना

दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य । पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सासारिक विषयों से । मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है । उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है । विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है ।


7. मन और इन्द्रयों का निग्रह

शरीर एक रथ हैं । आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्घि सारथी हैं । मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े । इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है । जो अल्प बुद्घि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है । परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता । जो व्यक्ति अपनी बुद्घि द्घारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है ।


8.मन की पवित्रता

जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्घि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है । विशुदृ मनव में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है । अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है । विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है । यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है । यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो ।


9. गुरु की आवश्यकता

आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसककी प्राप्ति संभव नहीं । इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है । अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पग आध्यात्मिक उन्नति करा सकता है ।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।

जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है । यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विघाओं और बुद्घि द्घारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्घारा ही । इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है ।


बाबा का उपदेश

जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय । आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये । उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे । बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे । तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो । जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते । जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है । आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है । जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है । तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है । अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है ।

तुलसीदास जी कहते है –

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।

जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान कीगुंजाइश ही नहीं है । फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है । लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है । यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी । एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इछ्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ । वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता । जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है । इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्घिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये । मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है । जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा । इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य भाषण नहीं करता । जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है । बाबा द्घारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे । बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये ।


बाबा का वैशिष्टय

ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है । वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है । श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे । यघपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे । वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे । इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे । ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें । श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है-

वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Thursday 29 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 15

Sai Satcharitra Hindi chap 15

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 15 - नारदीय कीर्तन पदृति, श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय, दो छिपकलियाँ ।

पाठकों को स्मरण होगा कि छठें अध्याय के अनुसार शिरडी में राम नवमी उत्सव मनाया जाता था । यह कैसे प्रारम्भ हुआ और पहने वर्ष ही इस अवसर पर कीर्तन करने के लिये एक अच्छे हरिदास के मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हुई, इसका भी वर्णन वहाँ किया गया है । इस अध्याय में दासगणू की कीर्तन पदृति का वर्णन होगा ।


नारदीय कीर्तन पदृति

बहुधा हरिदास कीर्तन करते समय एक लम्बा अंगरखा और पूरी पोशाक पहनते है । वे सिर पर फेंटा या साफा बाँधते है और एक लम्बा कोट तथा भीतर कमीज, कन्धे पर गमछा और सदैव की भाँति एक लम्बी धोती पहनते है । एक बार गाँव में कीर्तन के लिये जाते हुए दासगणू भी उपयुक्त रीति से सज-धज कर बाबा को प्रणाम रने पहुँचे । बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे, अच्छा । दूल्हा राजा । इस प्रकार बनठन कर कहाँ जा रहे हो । उत्तर मिला कि कीर्तन के लिये । बाबा ने पूछा कि कोट, गमछा और फेंटे इन सब की आवश्यकता ही क्या है । इनकों अभी मेरे सामने ही उतारो । इस शरीर पर इन्हें धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है । दासगणू ने तुरन्त ही वस्त्र उतार कर बाबा के श्री चरणों पर रख दिये । फिर कीर्तन करते समय दासगणू ने इन वस्त्रों को कभी नहीं पहना । वे सदैव कमर से ऊपर अंग खुले रखकर हाथ में करताल औ गले में हार पहन कर ही कीर्तन किया करते थे । यह पदृति यघपि हरिदासों द्घारा अपनाई गई पदृति के अनुरुप नहीं है, परन्तु फिर भी शुदृ तथा पवित्र हैं । कीर्तन पदृति के जन्मदाता नारद मुनि कटि से ऊपर सिर तक कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे । वे एक हाथ में वीणा ही लेकर हरि-कीर्तन करते हुए त्रैलोक्य में घूमते थे ।


श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय

बाबा की कीर्ति पूना और अहमदनगर जिलों में फैल चुकी थी, परन्तु श्री नानासाहेब चाँदोरकर के व्यक्तिगत वार्ताँलाप तथा दासगणू के मधुर कीर्तन द्घारा बाबा की कीर्ति कोकण (बम्बई प्रांत) में भी फैल गई । इसका श्रेय केवल श्री दासगणू को ही है । भगवान् उन्हें सदैव सुखी रखे । उन्होंने अपने सुन्दर प्राकृतिक कीर्तन से बाबा को घर-घर पहुँचा दिया । श्रोताओं की रुचु प्रायः भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । किसी को हरिदासों की विदृता, किसी को भाव, किसी को गायन, तो किसी को चुटकुले तथा किसी को वेदान्त-विवेचन और किसी को उनकी मुख्य कथा रुचिकर प्रतीत होती है । परन्तु ऐसे बिरले ही है, जिनके हृदय में संत-कथा या कीर्तन सुनकर श्रद्घा और प्रेम उमड़ता हो । श्री दासगणू का कीर्तन श्रोताओं के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालता था । एक ऐसी घटना नीचे दी जाती है ।

एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे । श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था । दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा । मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ । यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाँटूँगा । भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया । उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई । अब केवल संकल्प ही शेष रहा । शुभस्य शीघ्रम । श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था । अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ । ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं । श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने कि लिये उत्सुक था । उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया । इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा । उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्घा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है । मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी । मसजिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे । जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना । इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े । श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है ।

बाबा का यह कथा था कि यदि तुम श्रद्घापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा । यघपि मैं शरीर से तो यहाँ हू, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है । मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अन्तरस्थ ही हूँ । जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृददय में वास है, उसकी ही पूजा करो । धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरुप से परिचित हैं । बाबा ने श्री. चोलकर को कितनी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की ।


दो छिपकलियों का मिलन

अब हम दो छोटी छिपकलियों की कथा के साथ ही यह अध्याय समाप्त करेंगे । एक बार बाबा मसजिद में बैठे थे कि उसी समय एक छिपकली चिकचिक करने लगी । कौतूहलवश एक भक्त ने बाबा से पूछा कि छिपकली के चिकचिकाने का क्या कोई विशेष अर्थ है । यह शुभ है या अशुभ । बाबा ने कहा कि इस छिपकली की बहन आज औरंगाबाद से यहाँ आने वाली है । इसलिये यह प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही है । वह भक्त बाबा के शब्दों का अर्थ न समझ सका । इसलिये वह चुपचाप वहीं बैठा रहा ।

इसी समय औरंगाबाद से एक आदमी घोडे पर बाबा के दर्शनार्थ आया । वह तो आगे जाना चाहता था, परन्तु घोड़ा अधिक भूखा होने के कारण बढ़ता ही न था । तब उसने चना लाने को एक थैली निकाली और धूल झटकारने कि लिये उसे भूमि पर फटकारा तो उसमें से एक छिपकली निकली और सब के देखते-देखते ही वह दीवार पर चढ़ गई । बाबा ने प्रश्न करने वाले भक्त से ध्यानपूर्वक देखने को कहा । छिपकली तुरन्त ही गर्व से अपनी बहन के पास पहुँच गई थी । दोनों बहनें बहुत देर तक एक दूसरे से मिलीं और परस्पर चुंबन व आलिंगन कर चारों ओर घूमघूम कर प्रेमपूर्वक नाचने लगी । कहाँ शिरडी और कहाँ औरंगाबाद । किस प्रकार एक आदमी घोड़े पर सवार होकर, थैली में छिपकली को लिये हुए वहाँ पहुँचता है और बाबा को उन दो बहिनों की भेंट का पता कैसे चल जाता है-यह सब घटना बहुत आश्चर्यजनक है और बाबा की सर्वव्यापकता की घोतक है ।


शिक्षा

जो कोई इस अध्याय का ध्यानपूर्वक पठन और मनन करेगा, साईकृपा से उसके समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे और वह पूर्ण सुखी बनकर शांति को प्राप्त होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday 28 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 14

Sai Satcharitra Hindi chap 14

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 14 - नांदेड के रतनजी वाडिया, संत मौला साहेब, दक्षिणा मीमांसा ।

श्री साईबाबा के वचनों और कृपा द्घारा किस प्रकार असाध्य रोग भी निर्मूल हो गये, इसका वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है । अब बाबा ने किस प्रकार रतन जी वाडिया को अनुगृहीत किया तथा किस प्रकार उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, इसका वर्णन इस अध्याय में होगा ।

इस संत की जीवनी सर्व प्रकार से प्राकृतिक और मधुर हैं । उनके अन्य कार्य भी जैसे भोजन, चलना-फिरना तथा स्वाभाविक अमृतोपदेश बड़े ही मधुर हैं । वे आनन्द के अवतार है । इस परमानंद का उन्होंने अपने भक्तों को भी रसास्वादन कराय और इसीलिये उन्हें उनकी चिरस्मृति बनी रही । भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म और कर्तव्यों की अनेक कथाएँ भक्तों को उनके द्घारा प्राप्त हुई, जिससे वे सत्व मार्ग का अवलम्बन करें और वे सदैव जागरुक रहकर अपने जीवन का परम लक्ष्, आत्मानुभूति (या ईश्वरदर्शन) अवश्य प्राप्त करें । पिछले जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही यह देह प्राप्त हुई है और उसकी सार्थकता तभी है, जब उसकी सहायता से हम इस जीवन में भक्ति और मोश्र प्राप्त कर सकें। हमें अपने अन्त और जीवन के लक्ष्य के हेतु सदैव सावधान तथा तत्पर रहना चाहिए ।

यदि तुम नित्य श्री साई की लीलाओं का श्रवण करोगे तो तुम्हें उनाक सदैव दर्शन होता रहेगा । दिनरात उनका हृदय में स्मपण करते रहो । इस प्रकार आचरण करने से मन की चंचलता शीघ्र नष्ट हो जायेगी । यदि इसका निरंतर अभ्यास किया गया तो तुम्हें चैतन्य-घन से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी ।


नांदेड के रतनजी

अब हम इस अध्याया की मूल कथा का वर्णन करते है । नांदेड़ (निजाम रियासत) में रतनजी शापुरजी वाडिया नामक एक प्रसिदृ व्यापारी रहते थे । उन्होंने व्यापार में यथेष्ठ धनराशि संग्रह कर ली थी । उनके पासा अतुलनीय सम्पत्ति, खेत और चरोहर तथा कई प्रकार के पशु, घोडे़, गधे, खच्चर आदि और गाडि़याँ भी थी । वे अत्यन्त भाग्यशाली थे । यघपि बाहृ दृष्टि से वे अधिक सुखी और सन्तुष्ट प्रतीत होते थे, परन्तु भावार्थ में वे वैसे न थे । विधाता की रचना कुछ ऐसी विचित्र है कि इस संसार में पूर्ण सुखी कोई नहीं और धनाढ्य रतनजी भी इसके अपवाद न थे । वे परोपकारी तथा दानशील थे । वे दीनों को भोजन और वस्त्र वितरण करते तथा सभी लोगों की अनेक प्रकार से सहायता किया करते थे । उन्हें लोग अत्यन्त सुखी समझते थे । किन्तु दीर्घ काल तक संतान न होने के कारण उनके हृदय में संताप अधिक था । जिस प्रकार प्रेम तथा भक्तिरहित कीर्तन, वाघरहित संगीत, यज्ञोपवीतरहित ब्राहृमण, व्यावहारिक ज्ञानरहित कलाकार, पश्चातापरहित तीर्थयात्रा और कंठमाला (मंगलसूत्र) रहित अलंकार, उत्तम प्रतीत नहीं होते, उसी प्रकार संतानरहित गृहस्थ का घर भी सूना ही रहता है । रतनजी सदैव इसी चिन्ता में निमग्न रहते थे । वे मन ही मन कहते, क्या ईश्वर की मुझ पर कभी दया न होगी । क्या मुझे कभी पुत्र की पुत्र की प्राप्ति न होगी । इसके लिये वे सदैव उदास रहते थे । उन्हें भोजन से भी अरुचि हो गई । पुत्र की प्राप्ति कब होगी, यही चिन्ताउनहें सदैव घेरे रहती थी । उनकी दासगणू महाराज पर दृढ़ निष्ठा थी । उन्होंने अपना हृदय उनके सम्मुख खोल दिया, तब उन्होंने श्रीसाई सार्थ की शरण जाने और उनसे संता-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने का परामर्श दिया । रतनजी को भी यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ और उन्होंने शिरडी जाने का निश्चय किया । कुछ दिनों के उपरांत वे शिरडी आये और बाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे । उन्होंने एक सुन्दर हार बाबा को पहना कर बहुत से फल-फूल भेंट किये । तत्पश्चात् आदर सहित बाबा के पास बैठकर इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, अनेक आपत्तिग्रस्त लोग आप के पास आते है और आप उनके कष्ट तुरंत दूर कर देते है । यही कीर्ति सुनकर मैं भी बड़ी आशा से आपके श्रीचरणों में आया हूँ । मुझे बड़ा भरोसा हो गया है, कृपया मुझे निराश न कीजिये । श्रीसाईबाबा ने उनसे पाँच रुपये दक्षिणा माँगी, जो वे देना ही चाहते थे । परन्तु बाबा ने पुनः कहा, मुझे तुमसे तीन रुपये चौदह आने पहने ही प्राप्त हो चुके है । इसलिये केवल शेष रुपये ही दो । यह सुनकर रतनजी असमंजस में पड़ गये । बाबा के कथन का अभिप्राय उनकी समझ में न आया । वे सोचने लगे कि यह शिरडी आने का मेरा प्रथम ही अवसर है और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन्हें तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके है । वे यह पहेली हल न कर सकें । वे बाबा के चरणों के पास ही बैठे रहे तथा उन्हें शेष दक्षिणा अर्पित कर दी । उन्होंने अपने आगमन का हेतु बतलाया और पुत्र-प्राप्ति की प्रार्थना की । बाबा को दया आ गई । वे बोले, चिन्ता त्याग दे, अब तुम्हारे दुर्दिन समाप्त हो गये है । इसके बाद बाबा ने उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखकर कहा, अल्ल्ह तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा ।

बाबा की अनुमति प्राप्त कर रतनजी नांदेड़ लौट आये और शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे दासगणू को सुनाया । रतनजी ने कहा, सब कार्य ठीक ही रहा । बाबा के शुभ दर्शन हुए, उनका आशीर्वाद और प्रसाद भी प्राप्त हुआ, परन्तु वहाँ की एक बात समझ में नहीं आई । वहाँ पर बाबा ने कहा था कि मुझे तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके हैं । कृपया समझाइये कि इसका क्या अर्थ है इससे पूर्व मैं शिरडी कभी भी नहीं गया । फिर बाबा को वे रुपये कैसे प्राप्त हो गये, जिसका उन्होंने उल्लेख किया । दासगणू के लिये भी यह एक पहेली ही थी । बहुत दिनों तक वे इस पर विचार करते रहे । कई दिनों के पश्चात उन्हें स्मरण हुआ कि कुछ दिन पहले रतनजी ने एक यवन संत मौला साहेब को अपने घर आतिथ्य के लिये निमंत्रित किया था तथा इसके निमित्त उन्होंने कुछ धन व्यय किया था । मौला साहेब नांदेड़ के एक प्रसिदृ सन्त थे, जो कुली का काम किया करते थे । जब रतनजी ने शिरडी जाने का निश्चय किया था, उसके कुछ दिन पूर्व ही मौला साहेब अनायास ही रतनजी के घर आये । रतनजी उनसे अच्छी तरह परिचित थे तथा उनसे प्रेम भी अधिक किया करते थे । इसलिये उनके सत्कार में उन्होने एक छोटे से जलपान की व्यवस्थ की थी । दासगणू ने रतनजी से आतिथ्य के खर्च की सूची माँगी और यह जालकर सवबको आश्चर्य हुआ कि खर्चा ठीक तीन रुपये चौदह आने ही हुआ था, न इससे कम था और न अधिक । सबको बाबा की त्रिकालज्ञता विदित हो गई । यघपि वे शिरडी में विराजमान थे, परन्तु शिरडी के बाहर क्या हो रहा है, इसका उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान था । यथार्थ में बाबा भूत, भविष्यत् और वर्तमान के पूर्ण ज्ञाता और प्रत्येक आत्मा तथा हृदय के साथ संबंध थे । अन्यथा मौला साहेब के स्वागतार्थ खर्च की गई रकम बाबा को कैसे विदित हो सकती थी ।

रतनजी इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गये और उनकी साईचरणों में प्रगाढ़ प्रीति हो गई । उपयुक्त समय के पश्चात उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, जिससे उनके हर्ष का पारावार न रहा । कहते है कि उनके यहाँ बारह संताने हुई, जिनमें से केवल चर शेष रहीं ।

इस अध्याय के नीचे लिखा है कि बाबा ने रावबहादुर हरी विनायक साठे को उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दूसरा ब्याह करने पर पुत्ररत्न की प्राप्ति बतलाई । रावबहादुर साठे ने द्घितीय विवाह किया । प्रथम दो कन्यायें हुई, जिससे वे बड़े निराश हुए, परन्तु तृतीय बार पुत्र प्राप्त हुआ । इस तरह बाबा के वचन सत्य निकले और वे सन्तुष्ट हो गये ।


दक्षिणा मीमांसा

दक्षिणा के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातों का निरुपण कर हम यह अध्याय समाप्त करेंगें । यह तो विदित ही है कि जो लोग बाबा के दर्शन को आते थे, उनसे बाबा दक्षिणा लिया करते थे । यहाँ किसी को भी शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब बाबा फकीर और पूर्ण विरक्त थे तो क्या उनका इस प्रकार दक्षिणा ग्रहण करना और कांचन को महत्व देना उचित था । अब इस प्रश्न पर हम विस्तृत रुप से विचार करेंगें ।

बहुत काल तक बाबा भक्तों से कुछ भी स्वीकार नहीं करते थे । वे जली हुई दियासलाइयाँ एकत्रित कर अपनी जेब में भर लेते थे । चाहे भक्त हो या और कोई, वे कभी किसी से कुछ भी नहीं माँगते थे । यदि किसी ने उनके सामने एक पैसा रख दिया तो वे उसे स्वीकार करके उससे तम्बाखू अथवा तेल आदि खरीद लिया करते थे । वे प्रायः बीडी या चिलम पिया करते थे । कुछ लोगों ले सोचा कि बिना कुछ भेंट किये सन्तों के दर्शन उचित नही है । इसलिये वे बाबा के सामने पैसे रखने लगे । यदि एक पैसा होता तो वे उसे जेब में रख लेते और यदि दो पैसे हुए तो तुरन्त उसमें से एक पैसा वापस कर देते थे । जब बाबा की कीर्ति दूर-दूर तक फैली और लोगों के झुण्ड के झुणड बाबा के दर्शनार्थ आने लगे, तब बाबा ने उनसे दक्षिणा लेना आरम्भ कर दिया । श्रुति कहती है कि स्वर्ण मुद्रा के अभाव में भगवतपूजन भी अपूर्ण है । अतः जब ईश्वर-पूजन में मुद्रा आवश्यक है तो सन्तपूजन में क्यों न हो । इसलिये शास्त्रों में कहा है कि ईश्वर, राजा, सन्त या गुरु के दर्शन, अपनी सामर्थ्यानुसार बिना कुछ अर्पण किये, कभी न करना चाहिये । उन्हों क्या भेंट दी जाये । अधिकतर मुद्रा या धन । इस सम्बन्ध में उपनिषदों में वर्णत नियमों का अवलोकन करें । बृहदारण्यक उपनिषद् में बताया गया है कि दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और राक्षसों के सामने एक अक्षर द का उच्चारण किया । देवताओं ने इसका अर्थ लगाया कि उन्हें दम अर्थात् आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करना चाहिये । मनुष्यों ने समझा कि उन्हें दान का अभ्यास करना चाहिये तथा राक्षसों ने सोचा कि हमें दया का अभ्यास करना चाहिण । मनुष्यों को दान की सलाह दी गई । तैतिरीय उपनिषद में दान व अन्य सत्व गुणों को अभ्यास में लाने की बात कही गयी है । दान के संबंध में लिखा है – विश्वासपू्रर्वक दान करो, उसेक बिना दान व्यर्थ है । उदार हृदय तथा विनम्र बनकर, आदर और सहानुभूतिपूर्वक दान करो । भक्तों को कांचन-त्याग का पाठ पढ़ाने तथा उनकी आसक्ति दूर करने और चित्त शुदृ कराने के लिए ही बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे । परन्तु उनकी एक विशेषता भी थी । बाबा कहा करते थे कि जो कुछ भी मैं स्वीकार करता हूँ, मुझे उसके शत गुणों से अधिक वापस करना पडता है । इसके अने प्रमाण हैं ।


एक घटना

श्री गणपतराव बोडस, प्रसिदृ कलाकार, अपनी आत्म-कथा में लिखतते है कि बाबा के बार-बार आग्रह करने पर उन्होने अपने रुपयों की थैली उनके सामने उँडेल दी । श्री बोडस लिखते है कि इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन में फिर उन्हें धन का कभी अभाव न हुआ तथा प्रचुर मात्रा में लाभ ही होता रहा है । इसका एक भिन्न अर्थ भी है । अनेकों बार बाबा ने किसी प्रकार की दक्षिणा स्वीकार भी नहीं की । इसके दो उदाहरण है । बाबा ने प्रो.सी.के. नारके से 15 रुपये दक्षिणा माँगी । वे प्रत्युत्तर में बोले कि मेरे पास तो एक पाई नहीं है । तब बाबा ने कहा कि मैं जानता हूँ, तुम्हारे पास कोई द्रव्य नहीं है, परन्तु तुम योगवासिष्ठ का अध्ययन तो करते हो, उसमें से ही दक्षिणा दो । यहाँ दक्षिणा का अर्थ है – पुस्तक से शक्षा ग्रहण कर हृदयगम करना, जो कि बाबा का निवासस्थान हैं ।

एक दूसरी घटना में उन्होंने एक महिला श्री मती आर.ए. तर्खड से 6 रुपये दक्षिणा माँगी । महिला बहुत दुःखी हुई, क्योंकि उनके पास देने को कुछ भी न था । उनके पति ने उन्हें समझाया कि बाबा का अर्थ तो षडि्पुओं से है, जिन्हे बाबा को समर्पित कर देना चाहिए । बाबा इस अर्थ से सहमत हो गये ।

यह ध्यान देने योग्य है कि बाबा के पास दक्षिणा के रुप में बहुत-सा द्रव्य एकत्रित हो जाता था । सब द्रव्य वे उसी दिन व्यय कर देते और दूसरे दिन फर सदैव की भाँति निर्धन बन जाते थे । जब उन्होंने महासमाधि ली तो 10 वर्ष तक हजारों रुपया दक्षिणा मिलने पर भी उनके पास स्वल्प राशि ही शेष थी ।

संक्षेप में दक्षिणा लेने का मुख्य ध्येय तो भक्तों को केवल शुद्घीकरण का पाठ ही सिखाना था ।


दक्षिणा का मर्म

ठाणे के श्री. बी. व्ही. देव, (सेवा-नीवृत्त प्रान्त मामलतदार, जो बाबा के परमा भक्त थे) ने इस विषय पर एक लेख (साई लीला पत्रिका, भाग 7 पृष्ठ 626) अन्य विषयों सहित प्रकाशित किया है, जो निम्न प्रकार है – बाबा प्रत्येक से दक्षिणा नहीं लेते थे । यदि बाबा के बिना माँगे किसी ने दक्षिणा भेंट की तो वे कभी तो स्वीकार कर लेते थे । कभी अस्वीकार भी कर देते थे । वे केवल भक्तों से ही कुछ माँगा करते थे । उन्होने उन लोगों से कभी कुछ न माँगा, जो सोचते थे कि बाबा के माँगने पर ही दक्षिणा देंगे । यदि किसी ने उनकी इच्छा के विरुदृ दक्षिणा दे दी तो वे वहाँ से उसे उठाने को कह देते थे । वे यथायोग्य राशि भक्तों की इच्छा, भक्ति और सुविधा के अनुसार ही उनसे माँगा करते था । स्त्री और बालकों से भी वे दक्षिणा ले लेते थे । उन्होंने सभी धनाढयों या निर्धनों से कभी दक्षिणा नहीं माँगी । बाबा के माँगने पर भी जिन्होंने दक्षिणा न दी उनसे वे कभी क्रोधित नहीं हुए । यदि किसी मित्र द्घारा उन्हें दक्षिणा भिजवाई गई होती और उसका स्मरण न रहता तो बाबा किसी न किसी प्रकार उसे स्मरण कराकर वह दक्षिणा ले लेते थे । कुछ अवसरों पर वे दक्षिणा की राशि में से कुछ अंश लौटा भी देते और देने वालों को सँभाल कर रखने या पूजन में रखने के लिये कह देते थे । इससे दाता या भक्त को बहुत लाभ पहुँचता था । यदि किसी ने अपनी इच्छित राशि से अधिक भेंट की तो वे वह अधिक राशि लौटा देते थे । किसी-किसी से तो वे उसकी इच्छित राशि से भी अधिक माँग बैठते थे और यदि उसके पास नहीं होती तो दूसरे से उधार लेने या दूसरों से माँगने को भी कहते थे । किसी-किसी से तो दिन में 3-4 बार दक्षिणा माँगा करते थे ।

दक्षिणा में एकत्रित राशि में से बाबा अपने लिये बहुत थोड़ा खर्च किया करते थे । जैसे- जिलम पीने की तंबाखू और धूनी के लिए लकडियाँ मोल लेने के लिये आदि । शेष अन्य व्यक्तियों को विभिन्न राशियों में भिक्षास्वरुप दे देते थे । शिरडी संस्थान की समस्त सामग्रियाँ राधाकृष्णमाई की प्रेरणा से ही धनी भक्तों ने एकत्र की थी । अधिक मूल्यवाले पदार्थ लाने वालों से बाबा अति क्रोधित हो जाते और अपशब्द कहने लगते । उन्होंने श्री नानासाहेब चाँदोरकर से कहा कि मेरी सम्पत्ति केवल एक कौपीन और टमरेल हैं । लोग बिना कारण ही मूल्यवान पदार्थ लाकर मुझे दुःखित करते है । कामिनी और कांचन मार्ग में दो मुखय बाधायें हौ और बाबा ने इसके लिए दो पाठशालाये खोली थी । यथा – दक्षिणा ग्रहण करना और राधाकृष्णमाई के यहाँ भेजना – इस बात की परीक्षा करने के लिये कि क्या उनके भक्तों ने इन आसक्तियों से छुटकारा पा लिया है या नहीं । इसीलिये जब कोई आता तो वे उनसे शाला में (राधाकृष्णमाई के घर) जाने को कहते । यदि वे इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये अर्थात् यह सिदृ हुआ कि वे कामिनी और कांचन की आसक्ति से विरक्त है तो बाबा की कृपा और आशीर्वाद से उनकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही हो जाती थी ।

श्री देव ने गीता और उपनिषद् से घटनाएँ उदृत की है और कहते है कि किसी तीर्थस्थान में किसी पूज्य सन्त को दिया हुआ दान दाता को बहुत कल्याँकारी होता है । शिरडी और शिरडी के प्रमुख देवता साईबाबा से पवित्र और है ही क्या ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Tuesday 27 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 13

Sai Satcharitra Hindi chap 13

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 13 - अन्य कई लीलाएँ-रोगनिवारण

भीमाजी पाटील
बाला दर्जी
बापूसाहेब बूटी
आलंदीस्वामी
काका महाजना
हरदा के दत्तोपंत ।

माया की अभेघ शक्ति

बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि मैं फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्घार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं । परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे । इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिलके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल साई साई का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश् लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ । अब आगे देखियो कि अनाश्रितों के आश्रयदाता साई ने भक्तों के कल्याणार्थ क्या-क्या किया ।


भीमाजी पाटील ः सत्य साई व्रत

नारायण गाँव (तालुका जुन्नर, जिला पूना) के एक महानुभाव भीमाजी पाटील को सन् 1909 में वक्षस्थल में एक भयंकर रोग हुआ, जो आगे चलकर क्षय रोग में परिणत हो गया । उन्होंने अनेक प्रकार की चिकित्सा की, परन्तु लाभ कुछ न हुआ । अन्त में हताश होकर उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, हे नारायण । हे प्रभो । मुझ अनाथ की कुछ सहायता करो । यह तो विदित ही है कि जब हम सुखी रहते है तो भगवत्-स्मरण नहीं करते, परन्तु ज्यों ही दुर्भाग्य घेर लेता है और दुर्दिन आते है, तभी हमें भगवान की याद आती है । इसीलिए भीमाजी ने भी ईश्वर को पुकारा । उन्हें विचार आया किक्यों न साईबाबा के परम भक्त श्री. नानासाहेब चाँदोरकर से इस विषय में परामर्श लिया जाय और इसी हेतु उन्होंने अपना स्थिति पूर्ण विवरण सहित उनके पास लिख भेजी और उचित मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में श्री. नानासाहेब ने लिख दिया कि अब तो केवल एक ही उपाय शेष है और वह है साई बाबा के चरणकमलों की शरणागति । नानासाहेब के वचनों पर विश्वास कर उन्होंने शिरडी-प्रस्थान की तैयारी की । उन्हें शिरडी में लाया गया और मसजिद में ले जाकर लिटाया गया । श्री. नानासाहेब और शामा भी इस समया वहीं उपस्थित थे । बाबा बोले कि यह पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का ही फल है । इस कारण मै इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता । यह सुनकर रोगी अत्यन्त निराश होकर करुणपूर्ण स्वर में बोला कि मैं बिल्कुल निस्सहाय हूँ और अन्तिम आशा लेकर आपके श्री-चरणों में आया हूँ । आपसे दया की भीख माँगता हूँ । हे दीनों के शरण । मुझ पर दया करो । इस प्रार्थना से बाबा का हृदय द्रवित हो आया और वे बोले कि अच्छा, ठहरो । चिन्ता न करो । तुम्हारे दुःखों का अन्त शीघ्र होगा । कोई कितना भी दुःखित और पीड़ित क्यों न हो, जैसे ही वह मसजिद की सीढ़ियों पर पैर रखता है, वह सुखी हो जाता हैं । मसजिद का फकीर बहुत दयालु है और वह तुम्हारा रोग भी निर्मूल कर देगा । वह तो सब लोंगों पर प्रेम और दया रखकर रक्षा करता हैं । रोगी को हर पाँचवे मिनट पर खून की उल्टियाँ हुआ करती थी, परन्तु बाबा के समक्ष उसे कोई उल्टी न हुई । जिस समय से बाबा ने अपने श्री-मुख से आशा और दयापूर्ण शब्दों में उक्त उदगार प्रगट किये, उसी समय से रोग ने भी पल्टा खाया । बाबा ने रोगी को भीमाबाई के घर में ठहरने को कहा । यह स्थान इस प्रकार के रोगी को सुविधाजनक और स्वास्थ्यप्रद तो न था, फिर भी बाबा की आज्ञा कौन टाल सकता था । वहाँ पर रहते हुए बाबा ने दो स्वप्न देकर उसका रोग हरण कर लिया । पहने स्वप्न में रोगी ने देखा कि वह एक विघार्थी है और शिक्षक के सामने कविता मुखाग्र न सुना सकने के दण्डस्वरुप बेतों की मार से असहनीय कष्ट भोग रहा है । दूसरे स्वप्न में उसने देखा कि कोई हृदय पर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर पत्थार घुमा रहा है, जिससे उसे असहृय पीड़ हो रही हैं । स्वप्न में इस प्रकार कष्ट पाकर वह स्वस्थ हो गया और घर लौट आया । िफर वह कभी-कभी शिऱडी आता और साईबाबा की दया का स्मरण कर साष्टांग प्रणाम करता था । बाबा अपने भक्तों से किसी वस्तु की आशा न रखते थे । वे तो केवल स्मरण, दृढ़ निष्ठा और भक्ति के भूखे थे । महाराष्ट्र के लोग प्रतिपक्ष या प्रतिमास सदैव सत्यनारायण का व्रत किया करते है । परन्तु अपने गाँव पहुँचने पर भीमाजी पाटीन ने सत्यनारायण व्रत के स्थान पर एक नया ही सत्य साई व्रत प्रारम्भ कर दिया ।


बाला गणपत दर्जी

एक दूसरे-भक्त, जिनका नां बाला गणपत दर्जी था, एक समय जीर्ण ज्वर से पीड़ित हुए । उन्होंने सब प्रकार की दवाइयाँ और काढ़े लिये, परन्तु इनसे कोई लाभ न हुआ । जब ज्वर तिलमात्र भी न घटा तो वे शिरडी दौडे़ आये और बाबा के श्रीचरणों की शरण ली । बाबा ने उन्हें विचित्र आदेश दिया कि लक्ष्मी मंदिर के पास जाकर एक काले कुत्ते को थोड़ासा दही और चावल खिलाओ । वे यह समझ न सके कि इस आदेश का पालन कैसे करें । घर पहुँचकर चावल और दही लेकर वे लक्ष्मी मंदिर पहुँचे, जहाँ उन्हें एक काला कुत्ता पूँछ हिलाते हुए दिखा । उन्होंने वह चावल और दही उस कुत्ते के सामने रख दिया, जिसे वह तुरन्त ही खा गया । इस चरित्र की विशेषता का वर्णन कैसे करुँ कि उपयुर्क्त क्रिया करने मात्र से ही बाला दर्जी का ज्वर हमेशा के लिये जाता रहा ।


बापूसाहेब बूटी

श्रीमान् बापूसाहेब बूटी एक बार अम्लपित्त के रोग से पीड़ित हुए । उनकी आलमारी में अनेक औषधियाँ थी, परन्तु कोई भी गुणकारी न हो रही थी । बापूसाहेब अम्लपित्त के काण अति दुर्बल हो गये और उनकी स्थिति इतनी गम्भीर हो गई कि वे अब मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन करने में भी असमर्थ थे । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने सम्मुख बिठाया और बोले, सावधान, अब तुम्हें दस्त न लगेंगे । अपनी उँगली उठाकर फर कहने लगे उलटियाँ भी अवश्य रुक जायेंगी । बाबा ने ऐसी कृपा की कि रोग समूल नष्ट हो गया और बापूसाहेब पूर्ण स्वस्थ हो गये ।

एक अन्य अवसर पर भी वे हैजा से पीडि़त हो गये । फलस्वरुप उनकी प्यास अधिक तीव्र हो गई । डाँ. पिल्ले ने हर तरह के उपचार किये, परन्तु स्थिति न सुधरी । अन्त में वे फिर बाबा के पास पहुँचे और उनसे तृशारोग निवारण की औशधि के लिये प्रार्थना की । उनकी प्रार्थना सुनकर बाबा ने उन्हें मीठे दूध में उबाला हुआ बादाम, अखरोट और पिस्ते का काढ़ा पियो । - यह औषधि बतला दी ।

दूसरा डाँक्टर या हकीम बाबा की बतलाई हुई इस औषधि को प्राणघातक ही समझता, परन्तु बाबा की आज्ञा का पालन करने से यह रोगनाशक सिदृ हुई और आश्चर्य की बात है कि रोग समूल नष्ट हो गया ।


आलंदी के स्वामी

आलंदी के एक स्वामी बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे । उनके कान में असहृ पीड़ा थी, जिसके कारण उन्हें एक पल भी विश्राम करना दुष्कर था । उनकी शल्य चिकित्सा भी हो चुकी थी, फिर भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ था । दर्द भी अधिक था । वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वापिस लौटने के लिये बाबा से अनुमति माँगने गये । यह देखकर शामा ने बाबा से प्रार्थना की कि स्वामी के कान में अधिक पीड़ा है । आप इन पर कृपा करो । बाबा आश्वासन देकर बोले, अल्लाह अच्छा करेगा । स्वामीजी वापस पूना लौट गये और एक सप्ताह के बाद उन्होंने शिरडी को पत्र भेजा कि पीड़ा शान्त हो गई है । परन्तु सूजन अभी पूर्ववत् ही है । सूजन दूर हो जाय, इसके लिए वे शल्यचिकित्सा (आपरेशन) कराने बम्बई गये । शल्यचिकित्सा विशेषक्ष (सर्जन) ने जाँच करने के बाद कहा कि शल्यचिकित्सा (आपरेशन) की कोई आवश्यकता नहीं । बाबा के शब्दों का गूढ़ार्थ हम निरे मूर्ख क्या समझें ।


काका महाजनी

काका महाजनी नाम के एक अन्य भक्त को अतिसार की बीमारी हो गई । बाबा का सेवा-क्रम कहीं टूट न जाय, इस कारण वे एक लोटा पानी भरकर मसजिद के एक कोने में रख देते थे, ताकि शंका होने पर शीघ्र ही बाहर जा सकें । श्री साईबाबा को तो सब विदित ही था । फिर भी काका ने बाबा को सूचना इसलिये नहीं दी कि वे रोग से शीघ्र ही मुक्ति पा जायेंगे । मसजिद में फर्श बनाने की स्वीकृति बाबा से प्राप्त हो ही चुकी थी, परन्तु जब कार्य प्रारम्भ हुआ तो बाबा क्रोधित हो गये और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, जिससे भगदड़ मच गई । जैसे ही काका भागने लगे, वैसे ही बाबा ने उन्हें पकड़ लिया और अपने सामने बैठा लिया । इस गडबड़ी में कोई आदमी मूँगफली की एक छोटी थैली वहाँ भूल गया । बाबा ने एक मुट्ठी मूँगफली उसमें से निकाली और छील कर दाने काका को खाने के लिये दे दिये । क्रोधित होना, मूँगफली छीलना और उन्हें काका को खिलाना, यह सब कार्य एक साथ ही चलने लगा । स्वंय बाबाने भी उसमें से कुछ मूँगफली खाई । जब थैली खाली हो गई तो बाबा ने कहा कि मुझे प्यास लगी है । जाकर थोड़ा जल ले आओ । काका एक घड़ा पाना भर लाये और दोनों ने उसमें से पानी पिया । फिर बाबा बोले कि अब तुम्हारा अतिसार रोग दूर हो गया । तुम अपने फर्श के कार्य की देखभाल कर सकते हो । थोडे ही समय में भागे हुए लोग भी लौट आये । कार्य पुनः प्रारम्भ हो गया । काका कारो अब प्रायः दूर हो चुका था । इस कारण वे कार्य में संलग्न हो गये । क्या मूँगफली अतिसार रोग की औषधि है । इसका उत्तर कौन दे । वर्तमान चिकित्सा प्रणाली के अनुसार तो मूँगफली से अतिसार में वृद्घि ही होती है, न कि मुक्ति । इस विषय में सदैव की भाँति बाबा के श्री वचन ही औषधिस्वरुप थे ।


हरद के दत्तोपन्त

हरदा के एक सज्जन, जिनका नाम श्री दत्तोपन्त था, 14 वर्ष से उदररोग से पीड़ित थे । किसी भी औषधि से उन्हें लाभ न हुआ । अचानक कहीं से बाबा की कीर्ति उनके कानों में पड़ी कि उनकी दृष्टि मात्र से ही रोगी स्वस्थ हो जाते हैं । अतः वे भी भाग कर शिरडी आये और बाबा के चरणों की शरण ली । बाबा ने प्रेम-दृष्टि से उनकी ओर देखकर आशीर्वाद देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखा । आशीष और उदी प्राप्त कर वे स्वस्थ हो गये तथा भविष्य में फिर कोई हुड़ा न हुई ।

इसी तरह के निम्नलिखित तीन चमत्कार इस अध्याय के अन्त में टिप्पणी में दिये गये हैं –

माधवराव देशपांडे बवासीर रोग से पीडि़त थे । बाबा की आज्ञानुसार सोनामुखी का काढ़ा सेवन करने से वे नीरोग हो गये । दो वर्ष पश्चात् उन्हें पुनः वही पीड़ा उत्पन्न हुई । बाबा से बिना परामर्श लिये वे उसी काढ़े का सेवन करने लगे । परिणाम यह हुआ कि रोग अधिक बढ़ गया । परन्तु बाद में बाबा की कृपा से शीघ्र ही ठीक हो गया ।
काका महाजनी के बड़े भाई गंगाधरपन्त को कुछ वर्षों से सदैव उदर में पीड़ा बनी रहती थी । बाबा की कीर्ति सुनकर वे भी शिरडी आये और आरोग्य-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगे । बाबा ने उनके उदर को स्पर्श कर कहा, अल्लाह अच्छा करेगा । इसके पश्चात् तुरन्त ही उनकी उदर-पीड़ा मिट गई और वे पूर्णतः स्वस्थ हो गये ।
श्री नानासाहेब चाँदोरकर को भी एक बार उदर में बहुत पीड़ा होने लगी । वे दिनरात मछली के समान तड़पने लगे । डाँ. ने अनेक उपचार किये, परन्तु कोई परिणाम न निकला । अन्त मेंवे बाबा की शरण में आये । बाबा ने उन्हें घी के साथ बर्फी खाने की आज्ञा दी । इस औषधि के सेवन से वे पूर्ण स्वस्थ हो गये ।

इन सब कथाओं से यही प्रतीत होता है कि सच्ची औषधि, जिससे अनेंकों को स्वास्थ्य-लाभ हुआ, वह बाबा के केवल श्रीमुख से उच्चरित वचनों एवं उनकी कृपा का ही प्रभाव था ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Monday 26 December 2011

Sai Satcharitra Hindi Chp 12

Sai Satcharitra Hindi chap 12

श्री साई सच्चरित्र

अध्याय 12 - काका महाजनी, धुमाल वकील, श्रीमती निमोणकर, मुले शास्त्री, एक डाँक्टर के द्घारा बाबा की लीलाओं का अनुभव ।

इस अध्याय में बाबा किस प्रकार भक्तों से भेंट करते और कैसा बर्ताव करते थे, इसका वर्णन किया गया हैं ।


सन्तों का कार्य

हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है । परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है । सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायःएक समान ही है । यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है । वे भवसागर के कष्टों को सोखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है । सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है । वे उनसे पृथक नहीं है । श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे । वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी । उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था । वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे । उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे । पाठको । अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें । भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे । उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था । यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी । तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था । अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन सी इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका । अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्घापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ अंशों तक तृप्त हो जायेगी । भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका । इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था । अतः यह सव उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था ।


काका महाजनी

एक समय काका महाजनी बम्बई से शिरडी पहुँचे । उनका विचार एक सप्ताह ठढहरने और गोकुल अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने का था । दर्शन करने के बाद बाबा ने उनसे पूछा, तुम कब वापस जाओगे । उन्हें बाबा के इस प्रश्न पर आश्चर्य-सा हुआ । उत्तर देना तो आवश्यक ही था, इसलिये उन्होंने कहा, जब बाबा आज्ञा दे । बाबा ने अगले दिन जाने को कहा । बाबा के शब्द कानून थे, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक था । काका महाजनी ने तुरन्त ही प्रस्थान किया । जब वे बम्बई में अपने आफिस में पहुँचे तो उन्होंने अपने सेठ को अति उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते पाया । मुनीम के अचानक ही अस्वस्थ हो जाने के कारण काका की उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी । सेठ ने शिरडी को जो पत्र काका के लिये भेजा था, वह बम्बई के पते पर उनको वापस लौटा दिया गया ।


भाऊसाहेब धुमाल

अब एक विपरीत कथा सुनिये । एक बार भाऊसाहेब धुमाल एक मुकदमे के सम्बन्ध में निफाड़ के न्यायालय को जा रहे थे । मार्ग में वे शिरडी उतरे । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और तत्काल ही निफाड़ को प्रस्थान करने लगे, परन्तु बाबा की स्वीकृति प्राप्त न हुई । उन्होने उन्हे शिरडी में एक सप्ताह और रोक लिया । इसी बीच में निफाड़ के न्यायाधीश उदर-पीड़ा से ग्रस्त हो गये । इस कारण उनका मुकदमा किसी अगले दिन के लिये बढ़ाया गया । एक सप्ताह बाद भाऊसाहेब को लौटने की अनुमति मिली । इस मामले की सुनवाई कई महीनों तक और चार न्यायाधीशों के पास हुई । फलस्वरुप धुमाल ने मुकदमे में सफलता प्राप्त की और उनका मुवक्किल मामले में बरी हो गया ।


श्रीमती निमोणकर

श्री नानासाहेब निमोणकर, जो निमोण के निवासी और अवैतनिक न्यायाधीश थे, शिरडी में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे । निमोणकर तथा उनकी पत्नी बहुत-सा समय बाबा की सेवा और उनकी संगति में व्यतीत किया करते थे । एक बार ऐसा प्रसंग आया कि उनका पुत्र और अन्य संबंधियों से मिलने तथा कुछ दिन वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया । परन्तु श्री नानासाहेब ने दूसरे दिन ही उन्हें लौट आने को कहा । वे असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करना चाहिए, परन्तु बाबा ने सहायता की । शिरडी से प्रस्थान करने के पूर्व वे बाबा के पास गई । बाबा साठेवाड़ा के समीप नानासाहेब और अन्य लोगों के साथ खड़े हुये थे । उन्होंने जाकर चरणवन्दना की और प्रस्थान करने की अनुमति माँगी । बाबा ने उनसे कह, शीघ्र जाओ, घबड़ाओ नही, शान्त चित्त से बेलापुर में चार दिन सुखपूर्वक रहकर सब सम्बन्धियों से मिलो और तब शिरडी आ जाना । बाबा के शब्द कितने सामयिक थे । श्री निमोणकर की आज्ञा बाबा द्घारा रद्द हो गई ।


नासिक के मुने शास्त्रीः ज्योतिषी

नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्नहोत्री ब्रापमण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था । इन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे । वे एक बार नागपुर के प्रसिदृ करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मसजिद में गये । बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मसजिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया । बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुँह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बाँट दिये और उनके छिलके अपने लिये रख लिये । हस्तरेएखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की । परन्तु बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग वाड़े को लौट आये । अब मुने शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गये । बाबा भी अपने नियमानुसार लेण्डी को पवाना हो गये । जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रँगेंगे । बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया । कुछ समय के बाद बाबा लौटे । अब मध्याहृ बेला की आरती की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी । बापूसाहेब जोग ने मुले से आरती में साथ करने के लिये पूछा । उन्होंने उत्तर दिया कि वे सन्ध्या समय बाबा के दर्शनों को जायेंगे । तब जोग अकेले ही चले गये । बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्त लोगों ने उनकी पूजा की । अब आरती प्रारम्भ हो गई । बाबा ने कहा, उस नये ब्राहमण से कुछ दक्षिणा लाओ । बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया । वे बुरी तरह घबड़ा गये । वे सोचने लगे कि मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राहमण हूँ, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है । माना कि बाबा महान् संत है, परन्तु मैं तो उनका शिष्य नहीं हूँ । फिर भी उन्होंने सोचा कि जब बाबा सरीखे महानसंत दक्षिणा माँग रहे है और बूटी सरीखे एक करोड़पति लेने को आये है तो वे अवहेलना कैसे कर सकते है । इसलिये वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरन् बूटी के साथ मसजिद को गये । वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मसजिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके । एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं । अपने गुरु को वहाँ देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ । कहीं यह स्वप्न तो नहीं है । नही । नही । यह स्वप्न नहीं हैं । मैं पूर्ण जागृत हूँ । परन्तु जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहाँ कैसे आ पहुँचे । कुछ समय तक उनके मुँह से एक भी शब्द न निकला । उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया । परन्तु वे निर्णय न कर सके कि कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी मसजिद में कैसे आ पहुँचे । फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाछ जोड़ कर स्तुति करने लगे । दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, परन्तु मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे । फिर सब जातिपाँति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता कीकल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े । उन्होंने आँखें मूँद ली, परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आँखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा माँगते हुए देखा । बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये । उनके हर्ष का पारावार न रहा । उनकी आँखें अश्रुपूरित होते हुए भी प्रसन्नता से नाच रही थी । उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी । मुले शास्त्री कहने लगे कि मेरे सब समशय दूर हो गये । आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए । बाबा की यतह अदभुत लीला देखकर सब भक्त और मुले शास्त्री द्रवित हो गये । गेरु लाओ, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे – बाबा के इन शब्दों का अर्थ अब सब की समझ में आ गया । ऐसी अदभुत लीला श्री साईबाबा की थी ।


डाँक्टर

एक समय एक मामलतदार अपने एक डाँक्टर मित्र के साथ शिरडी पधारे । डाँक्टर का कहना था कि मेरे इष्ट श्रीराम हैं । मैं किसी यवन को मस्तक न नमाऊँगा । अतः वे शिरडी जाने में असहमत थे । मामलतदार ने समझाया कि तुम्हें नमन करने को कोई बाध्य न करेगा और न ही तुम्हें कोई ऐसा करने को कहेगा । अतः मेरे साथ चलो, आनन्द रहेगा । वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दर्शन को गये । परन्तु डाँक्टर को ही सबसे आगे जाते देख और बाब की प्रथम ही चरण वन्दना करते देख सब को बढ़ा विस्मय हुआ । लोगों ले डाँक्टर से अपना निश्चय बदलने और इस भाँति एक यवन को दंडवत् करने का कारण पूछा । डाँक्टर ने बतलाया कि बाबा के स्थान पर उन्हें अपने प्रिय इष्ट देव श्रीराम के दर्शन हुए और इसलिये उन्होंने नमस्कार किया । जब वे ऐसा कह ही रहे थे, तभी उन्हें साईबाबा का रुप पुनः दीखने लगा । वे आश्चर्यचकित होकर बोले – क्या यह स्वप्न हो । ये यवन कैसे हो सकते हैं । अरे । अरे । यह तो पूर्ण योग-अवतार है । दूसरे दिन से उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बाबा स्वयं बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मसजिद में कदापि न जाऊँगा । इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । चौथे दिन उनका एक इष्ट मित्र थानदेश से शरडी आया । वे दोनों मसजिद में बाबा के दर्शन करने गये । नमस्कार होने के बाद बाबा ने डाँक्टर से पूछा, आपको बुलाने का कष्ट किसने किया । आप यहाँ कैसे पधारे । यह जटिल और सूचक प्रश्न सुनकर डाँक्टर द्रवित हो गये और उसी रात्रि को बाबा ने उनपर कृपा की । डाँक्टर को निद्रा में ही परमानन्द का अनुभव हुआ । वे अपने शहर लौट आये तो भी उन्हें 15 दिनों तक वैसा ही अनुभव होता रहा । इस प्रकार उनकी साईभक्ति कई गुनी बढ़ गई ।

उपर्यु्क्त कथाओं की शिक्षा, विशेषतः मुले शास्त्री की, यही है कि हमें अपने गुरु में दृढ़ विश्वास होना चाहिये ।

अगले अध्याय में बाबा की अन्य लीलाओं का वर्णन होगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।